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________________ ४, २, ४, १२२. ] deoमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामिसं [ ३७५ विरलणरुवं पडि रूवूणबंधगद्धमत्ताओ पढमविगिदिगो वुच्छाओ पावेंति । पुणो अधिगविसेसा जहा णस्सिदूण आगच्छति तदा वत्तइस्सामा । तं जहा - अंतोमुहुत्तूणणिसेगभागहारं संखेज्जरुवगुणिदं पुणो अवणिदसंखेज्जपुत्र कोर्डि' रूवूणाउअबंधगद्धागुणिदं हेहा विरलेदूण उवरिमेगरूवधरिदं समखंडं काढूण दिण्णे एगेगविसेसो पावदि । पुणो संखेज्जादि - संखेज्जुत्तरदुरूवूण।उअबंधगद्धासंकलगाए ओवट्टिय विरलेदूण उवरिमेगरूवधरिदं समखंड काढूण दिगे इच्छिदविसेसा पावेंति | पुणेो रूवूण हेडिमविरलणाए उवरिमविरलणसंखेज्जरुवाणि खंडिदूण लद्धं तत्थेव पक्खिविय तेहि एगसगलपक्खेवे भांगे हिदे विगिदिसरूवेण गलिददव्वमागच्छदि । पुणो पगदिसरूवेण गलिददव्वस्स विगिदिसरूपेण गलिददव्वेण सह आगमणमिच्छामो त्ति पगदिसरूवेण गलिददव्वेण विगिदिसरूवेण गलिददव्वम्मि भांगे हिदे संखेज्जरुवाणि लब्भंति । पुणो तेहि रुवाहिएहि विगिदिभागहारमोवट्टिय लद्धं तम्हि चैव वणिदे पगदि विगिदिसरूवेण गलिददन्वभागहारो होदि । पुणो द्रेण सगलपक्खेवे भागे हिंदे पगदि-विगिदिसरूवेण गलिददव्वं होदि । एदम्मि रूवूणभागहारेण गुणिदे विगल कम बन्धककाल मात्र प्रथम विकृतिगोपुच्छायें प्राप्त होती हैं । अब अधिक विशेष जिस प्रकार नष्ट होकर आते हैं वैसा कथन करते हैं । यथा- - अन्तर्मुहूर्त कम निषेकभागहारको संख्यात रूपों से गुणित कर फिर संख्यात पूर्वकोटियोंका अपनयन करके शेषको एक कम आयुबन्धककाल से गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उसका नीचे विरलन करके उपरिम एक रूपके प्रति प्राप्त राशिको समखण्ड करके देनेपर एक एक विशेष प्राप्त होता है । फिर संख्यातको आदि लेकर संख्यात उत्तर दो रूपोंसे कम आयुबन्धककालकी संकलनासे अपवर्तित करके विरलित कर उपारम विरलन के एक अंक के प्राप्त राशिको समखण्ड करके देने पर इच्छित विशेष प्राप्त होते हैं । फिर रूप कम अधस्तन विरलन द्वारा उपरिम विरलन के संख्यात रूपोंको खण्डित कर लब्धको उसी में मिलाकर उनका एक सकल प्रक्षेपमें भाग देने पर विकृति स्वरूप से निर्जीर्ण हुआ द्रव्य आता है । अब चूंकि विकृति स्वरूपसे निर्जीर्ण द्रव्यके साथ प्रकृति स्वरूप से निर्जीर्ण द्रव्यका लाना अभीष्ट है. निर्जीर्ण द्रव्यका अतः प्रकृति स्वरूपसे विकृति स्वरूपसे निर्जीर्ण द्रव्यमें भाग देने पर संख्यात रूप प्राप्त होते हैं । फिर एक रूपसे अधिक उनके द्वारा विकृतिभागहारको अपवर्तित कर लब्धको उसीमेंसे कम करनेपर प्रकृति व विकृति स्वरूपसे निर्जीर्ण द्रव्यका भागहार होता है । फिर इसका सकल प्रक्षेपमें भाग देनेपर प्रकृति व विकृति स्वरूपसे निर्जीर्ण द्रव्य होता है । इसको रूप कम भागहार से गुणित करनेपर विकल प्रक्षेप होता है । इसलिये विकल १ प्रतिषु ' पुम्बकोडि- ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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