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________________ १०.] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ४, २९. चरिमदुगुणवड्डिपढमजोगो त्ति । संपधि चरिमगुणवड्डीए हेट्ठिमसव्वगुणहाणिसलागाओ विरलिय विगुणिय अण्णोण्णब्भासुप्पण्णरासिणा बेइंदियपज्जत्तजहण्णपरिणामजोगट्ठाणपक्खेवभागहारे गुणिदे चरिमजोगदुगुणहाणिपढमजोगट्ठाणपक्खेवभागहारो होदि । तं विरलेदूण चरिमदुगुणवडिपढमजोगट्ठाणं समखंड कादूण दिण्णे विरलणरूवं पडि एगेगपक्खेवो पावदि । तत्थेवेगपक्खेवे तस्सुवरि वड्डिदे असंखेज्जभागवड्डी होदि । पुणो बिदियपक्खेव वड्डिदे वि असंखेज्जभागवड्डी चेव होदूण ताव गच्छदि जाव एदम्मि पक्खेवभागहारं उक्कस्ससंखेज्जेण खंडिदे तत्थ रूवूणेगखंडमेत्तपक्खेवा पविट्ठा त्ति । पुणो तस्सुवरि एगपक्खेवे वड्डिदे संखेज्जभागवड्डी पारभदि । पुणो तस्सुवरि अण्णेगपक्खेवे वड्डिदे वि संखेज्जभागवड्डी चेव । एवं दो-तिण्णिचत्तारि आदि जाव रूवूणपक्खेवभागहारमेत्तपक्खेवा पविठ्ठा त्ति । पुणो चरिमपक्खेवे पविढे दुगुणवड्डी होदि । एवं चरिमगुणहाणीए तिणि चेव वड्ढीयो । संपधि पुबमागहारमुक्कस्ससंखेज्जमेत्तखंडाणि कादूण तत्थेगखंडमेत्तपक्खेवेसु पविद्वेसु जं जोगट्ठाणं तमाधारं कादूण वड्डिगवेसणा कीरदे । तं जहा- अद्धजोगपक्खेवभागहार प्रथम योगस्थानके प्राप्त होने तक सब दुगुणवृद्धियां उत्पन्न होती हैं । अब अन्तिम गुणवृद्धिके नीचेकी सब गुणहानिशलाकाओंका विरलन कर और उसे द्विगुणित कर जो अन्योन्याभ्यस्तराशि उत्पन्न होती है उससे द्वीन्द्रिय पर्याप्तके जघन्य परिणाम योगस्थान सम्बन्धी प्रक्षेपभागहारको गुणित करनेपर अन्तिम योग सम्बन्धी दुगुणहानिके प्रथम योगस्थानका प्रक्षेपभागहार होता है। उसका विरलन कर अन्तिम दुगुणवृद्धिके प्रथम योगस्थानको समखण्ड करके देने पर विरलन रूपके प्रनि एक एक प्रक्षेप प्राप्त होता है। उनमेंसे एक प्रक्षेप उसके ऊपर बढ़ानेपर असंख्यातभागवृद्धि होती है। फिर द्वितीय प्रक्षेपके बढ़ानेपर भी असंख्यातभागवृद्धि ही होकर तब तक जाती है जब तक इसमें प्रक्षेपभागहारको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करनेपर उससे एक कम एक खण्ड मात्र प्रक्षेप प्रविष्ट न हो जावें । पुनः उसके ऊपर एक प्रक्षेपके बढ़ानेपर संख्यातभागवृद्धि प्रारम्भ होती है। तत्पश्चात उसके ऊपर अन्य एक प्रक्षेपके बढ़ानेपर भी संख्यातभागवृद्धिही होती है। इस प्रकार दो, तीन, चार आदि एक कम प्रक्षेपभागहार प्रमाण प्रक्षेपोंके प्रविष्ट होने तक संख्यातभागवृद्धि ही होती है । पुनः अन्तिम प्रक्षेपके प्रविष्ट होनेपर दुगुणवृद्धि होती है । इस प्रकार अन्तिम गुणहानिमें तीन ही वृद्धियां होती हैं । . अब पूर्व भागहारके उत्कृष्ट संख्यात मात्र खण्ड करके उनमेंसे एक खण्ड मात्र प्रक्षेपोंके प्रविष्ट होनेपर जो योगस्थान हो उसको आधार करके वृद्धिका विचार करते हैं। १ सप्रतौ · जाव पटमद्गुण ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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