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________________ १, २, ४, २९.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं ___ चरिमजीवदुगुणवड्डीए अंतोमुहुत्तं किण्ण अच्छिदो ? ण, तत्थ असंखेज्जगुणवटिहाणीणमभावादो । ण च एदाहि वड्डि-हाणीहि विणा अंतोमुहुत्तद्धमच्छदि, ' असंखेज्जभागवडि-संखेज्जभागवड्डि-संखेज्जगुणवड्डीणं एदासिं हाणीणं च कालो जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो 'त्ति वयणादो। चरिमजीवदुगुणवड्डीए पुण असंखेज्जभागवड्डि-हाणीओ' चेव, ण सेसाओ। तेण तत्थ आवलियाए असंखेज्जदिमाग चेव अच्छदि ति णिच्छओ कायव्वो । तत्थ असंखेज्जभागवडि-हाणीयो चेव अत्थि, अण्णाओ पत्थि त्ति कधं णव्वदे ? जुत्तीदो । तं जहा- बीइंदियपज्जत्तयस्स जहण्णपरिणामजोगट्ठाणमादि कादूण पक्खेवुत्तरकमेण जोगट्ठाणाणि वड्डमाणाणि गच्छंति जाव पक्खेवूणदुगुणजोगट्ठाणे त्ति । पुणो तस्सुवरि एगपक्खेवे वड्डिदे हेट्ठिमदुगुणवड्डिअद्धाणादो दुगुणमद्धाणं गंतूण एत्थतणपढमदुगुणवड्डी जादा । एवं दुगुण-दुगुणमद्धाणं गंतूण सव्वदुगुणवड्डीयो उप्पज्जंति जाव शंका-अन्तिम जीवदुगुणवृद्धि में अन्तर्मुहूर्त काल तक क्यों नहीं रहा ? समाधान- नहीं, क्योंकि, वहां असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानि नहीं पाई जाती । यदि कहा जाय कि असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिके विना भी अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है सो भी बात नहीं हैं, क्योंकि, " असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका तथा इन्हीं तीन हानियोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है" ऐसा वचन है। पर अन्तिम जीवदुगुणवृद्धिमै असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानि ये दो ही होती हैं, शेष वृद्धि हानियां वहां नहीं होती । इसलिये वहां आवलीके असंख्यातवें भाग काल तक ही रहता है, ऐसा निश्चय करना चाहिये। शंका- वहां असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानि ही होती है, अन्य वृद्धि-हानियां नहीं होती; यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-यह बात युक्तिसे जानी जाती है । यथा-द्वीन्द्रिय पर्याप्तके जघन्य परिणाम योगस्थानसे लेकर एक एक प्रक्षेप-अधिकके क्रमसे योगस्थान एक प्रक्षेप कम दुगुणे योगस्थानके प्राप्त होने तक बढ़ते हुए चले जाते हैं । पुनः उसके ऊपर एक प्रक्षेपके बढ़नेपर अधस्तन दुगुणवृद्धि स्थानले दुगुणा स्थान जाकर यहांकी प्रथम दुगुणवृद्धि हो जाती है । इस प्रकार दुगुणे दुगुणे स्थान जाकर अन्तिम दुगुणवृद्धिके १ प्रतिषु ' -हाणीदो' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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