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________________ ४, २, ४, २९.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं [१०१ मुक्कस्ससंखेज्जेण खंडिदण तत्थेगखंडे तत्थेव पक्खित्ते अप्पिदजोगट्ठाणस्स पक्खेवभागहारो होदि । एदं पक्खेवभागहार विरलिय अप्पिदजोगट्टाणं समखंडं करिय दिण्णे विरलणरूवं पडि एगेगपक्खवपमाणं पावदि । एत्थ एगपक्खेवमप्पिदजोगट्ठाणम्मि पक्खित्ते असंखेज्जभागवडी होदि । एवमसंखेज्जभागवड्डी चेव होदूण ताव गच्छदि जाव एत्थतणपक्खेवभागहारमुक्कस्ससंखेज्जेण खंडिदूण तत्थ रूवूणेगखंडमेत्तपक्खेवा पविट्ठा त्ति । पुणो एगपक्खेव पविहे संखेज्जभागवड्डी होदि । पुव्विल्लअसंखेज्जभागवड्डिअद्धणादो एदमसंखेज्जभागवड्डिअद्धाणं विसेसाहिय होदि । केत्तियमेत्तेण ? अद्धजोगपखवभागहारमुक्कस्ससंखेज्जवग्गेण खंडिदे तत्थेगखंडमेत्तेण । एवमेत्थ संखेज्जभागवड्डीए आदी' होदण संखेज्जभागवड्डी ताव गच्छदि जाव रूवूणउक्कस्ससंखज्जमेत्तसेसखंडाणि सव्वाणि पविट्ठाणि त्ति । ताधे दुगुणवड्डी होदि । ण च एत्थ दुगुणवड्डी उप्पज्जदि, अंतिमदोखंडमेत्तजोगपक्खेवाणं पवेसाभावादो। अधवा अद्धजोगमुक्कस्ससंखेज्जेण खंडिदूण तत्थेगखंडेण अव्वहियजोगट्ठाणं णिरुभि यथा- अर्ध योगप्रक्षेपभागहारको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित कर उनमेंसे एक खण्डका उसी प्रक्षेप करने पर विवक्षित योगस्थानका प्रक्षेपभागहार होता है। इस प्रक्षेपभागहारका विरलन कर विवक्षित योगस्थानको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक विरलनके प्रति एक एक प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है। इनमेंसे एक प्रक्षेपको विवक्षित योगस्थानमें मिलानेपर असंख्यातभागवृद्धि होती है। इस प्रकार यहांके प्रक्षेपभागहारको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित कर उसमें एक कम एक खण्ड मात्र प्रक्षेपोंके प्रविष्ट होने तक असंख्यातभागवृद्धि ही होकर जाती है । पुनः एक प्रक्षेपके प्रविष्ट होनेपर संख्यातभागवृद्धि होती है । पूर्वोक्त असंख्यातभागवृद्धि के स्थानसे यह असंख्यातभागवृद्धिका स्थान विशेष अधिक है। कितना अधिक है ? अर्ध योगप्रक्षेपभागहारको उत्कृष्ट संख्यातके वर्गसे खण्डित करने पर उनमेंसे एक खण्ड मात्र अधिक है। इस प्रकार यहां संख्यातभागवृद्धिका प्रारम्भ होकर संख्यातभागवृद्धि तब तक जाती है जब तक कि एक कम उत्कृष्ट संख्यात मात्र शेष खण्ड सब नहीं प्रविष्ट हो जाते । तब दुगुणवृद्धि होती है । परन्तु यहां दुमुणवृद्धि नहीं उत्पन्न होती, क्योंकि, अभी अन्तिम दो खण्ड मात्र प्रक्षेपोंका प्रवेश . नहीं हुआ है। . अथवा अर्ध योगको उत्कृष्ठ संख्यातसे खण्डित कर उनमेंसे एक खण्ड अधिक १ अप्रतौ ' तावइ ' इति पाठः। ३ अप्रतौ ' आदीदो' इति पाठः । २ अ-आप्रयोः ' एग ', काप्रतौ 'एक' इति पाठः। . . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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