SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 462
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, २, ४, १७९.} वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया [१११ तेण पमाणेण एक्केक्कम्हि जीवपदेसे असंखेज्जलोगमेत्ता जोगाविभागपडिच्छेदा होति ति वुत्तं होदि । जहा कम्मपदेसेसु सगजहण्णगुणस्स अणंतिमभागो अविभागपडिच्छेदसण्णिदो जादो तहा एत्थ वि एगजीवपदेसजहण्णजोगस्स अणंतिमभागो अविभागपडिच्छेदो किण्ण जायदे १ ण एस दोसो, कम्मगुणस्सेव जोगस्स अणंतिमभागवड्डीए अभावादो। जोगे पण्णाए छिज्जमाणे जो असो विभागं ण गच्छदि सो अविभागपडिच्छेदो त्ति के वि भणति । तण्ण घडदे, पुव्वमविभागपडिच्छेदे अणवगए पण्णच्छेदाणुववत्तीदो । उववत्तीए वा कम्मा. विभागपडिच्छेदा इव अणंता जोगाविभागपडिच्छेदा होज्ज । ण च एवं, असंखेज्जा लोगा जोगाविभागपडिच्छेदा इदि सुत्तेण सह विरोहादो। एदेण सुत्तेण वग्गपरूवणा कदा, एगजीवपदेसाविभागपडिच्छेदाणं वग्गववएसादो । एवदिया जोगाविभागपडिच्छेदा ॥ १७९ ॥ एक्केक्कहि जीवपदेसे जोगाविभागपडिच्छेदा असंखेज्जलोगमेत्ता होति त्ति कटु लोगमेत्ते जीवपदेसे ठवेदूण तप्पाओग्गअसंखेज्जलोगेहि गहिदकरणुप्पाइदेहि गुणिदे एवदिया है। उस प्रमाणले एक एक जीवप्रदेशमें असंख्यात लोक प्रमाण योगाविभागप्रतिच्छन्द होते हैं, यह अभिप्राय है। __ शंका- जिस प्रकार कर्मप्रदेशोंमें अपने जघन्य गुणके अनन्तवें भागकी अघि भागप्रतिच्छेद संज्ञा होती है उसी प्रकार यहां भी एक जीवप्रदेश सम्बन्धी जघन्य योगके अनन्तवें भागकी अविभागप्रतिच्छेद संज्ञा क्यों नहीं होती? समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जिस प्रकार कर्मगुणके अनन्तभागवृद्धि पायी जाती है वैसे वह यहां सम्भव नहीं है। - योगको बुद्धिसे छेदनेपर जो अंश विभागको नहीं प्राप्त होता है वह अविभागप्रतिच्छेद है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। वह घटित नहीं होता, क्योंकि, पहिले अविभागप्रतिच्छेदके अज्ञात होनेपर बुद्धिसे छेद करना घटित नहीं होता। अथवा यदि वह घटित होता है, ऐसा स्वीकार किया जाय तो जैसे कर्मके अविभागप्रतिच्छेद अनन्त होते हैं वैसे ही योगके अविभागप्रतिच्छेद भी अनन्त होना चाहिये । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा होनेपर असंख्यात लोक प्रमाण योगके अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। इस सूत्रसे विरोध होगा। इस सूत्र द्वारा वर्गौकी प्ररूपणा की गई है, क्योंकि, एक जीवप्रदेशके अविभागप्रतिच्छेदोंकी वर्ग यह संज्ञा है। . एक योगस्थानमें इतने मात्र योगाविभागप्रतिच्छेद होते हैं ॥ १७९॥ एक एक जीवप्रदेशमें योगाविभागप्रतिच्छेद असंख्यात लोक मात्र होते हैं, ऐसा करके लोक मात्र जीवप्रदेशोंको स्थापित कर गृहीत करणके द्वारा उत्पादित तत्प्रायोग्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy