SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 461
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४० ] "छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ४, १७८. एदमासंकासुतं जोगाविभागपडिच्छेद संखाविसयं । एक्केक्कम्हि जीवपदे से जोगाविभागपडिच्छेदा किं संखेज्जा किमसंखेज्जा किमणंता होंति त्ति एत्थ तिविहा आसंका होदि । एदस्स णिण्णयत्थमुत्तरसुत्तमागदं - असंखेज्जा लोगा जोगाविभागपडिच्छेदा' ॥ १७८ ॥ जोगाविभागपडिच्छेदो णाम किं ? एक्कम्हि जीवपदेसे जोगस्स जा जहणिया वड्डी सो जोगाविभागपडिच्छेदो' । तेण पमाणेण एगजीवपदेसहिदजहण्णजोगे पण्णाए छिज्जमाणे असंखेज्जलागमेत्ता जोगाविभागपडिच्छेदा होंति । ऐगजीवपदेसट्ठिद उक्क सजोगे वि देण पमाणेण छिज्जमाणे असॅखेज्जलेोगमेत्ता चेव अविभागपडिच्छेदा होंति, एगजीवपदसहिदजहण्णजोगादो एगजीवपदे सहिद उक्कस्सजोगस्स असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो । एगजीवपदे सहिदजहणजेोगे असंखेज्जलोगेहि खंडिदे तत्थ एगखण्डमविभागपडिच्छेदो णाम । यह योगात्रिभागप्रतिच्छेदविषयक आशंकासूत्र है । एक एक जीवप्रदेश में योगाविभागप्रतिच्छेद क्या संख्यात हैं, क्या असंख्यात हैं और क्या अनन्त हैं; इस प्रकार यहां तीन प्रकारकी आशंका होती है । इसके निर्णयार्थ उत्तर सूत्र प्राप्त हुआ है एक एक जीवप्रदेशमें असंख्यात लोक प्रमाण योगाविभागप्रतिच्छेद होते हैं ॥। १७८ ॥ शंका- योगाविभागप्रतिच्छेद किसे कहते हैं ? समाधान एक जीवप्रदेश में योगकी जो जघन्य वृद्धि है उसे योगाविभागप्रतिच्छेद कहते हैं । उस प्रमाणसे एक जीवप्रदेशमें स्थित जघन्य योगको बुद्धिसे छेदनेपर अलंख्यात लोक प्रमाण योगाविभागप्रतिच्छेद होते हैं। एक जीवप्रदेश में स्थित उत्कृष्ट योग को भी इसी प्रमाणसे छेदनेपर असंख्यात लोक प्रमाण ही अविभागप्रतिच्छेद होते हैं, क्योंकि, एक जीवप्रदेश में स्थित जघन्य योगकी अपेक्षा एक जीवप्रदेश में स्थित उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा पाया जाता है। एक जीवप्रदेश में स्थित जघन्य योगको असंख्यात लोकोंसे खण्डित करनेपर उनमें से एक खण्ड अविभागप्रतिच्छेद कहलाता - १ पण्णाडेय छिन्ना लोगासंखेज्जगप्पएससमा । अविभागा एक्के के होंति पएसे जहन्नेणं ॥ क प्र. १, ६. २ कोऽविभागप्रतिच्छेदः ? जीवप्रदेशस्य कर्मादानशक्तौ जघन्यवृद्धिः, योगस्याधिकृतत्त्रात् । गो . क. जी. प्र. २२८. तत्र यस्यांशस्य प्रज्ञाच्छेदनकेन विभागः कर्तुं न शक्यते सोऽशोऽविभाग उच्यते । किमुक्तं भवति ? इह जीवस्य वीर्य केवलिप्रज्ञाच्छेदन केन विद्यमानं विद्यमानं यदा विभागं न प्रयच्छति तदा सोऽन्तिमोऽशोऽविभाग इति । क. प्र. ( मलय. ) ४, ५. ३ तात्रतौ ' होंति । एगजीवपदेसट्ठिदजहण्णजोगो परिणामए पण्णाए ) छिज्जमाणे असंखेज्जलोगमेता जोगाविभागपरिच्छेदा होंति । एग-' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy