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________________ १, २, ५, ३१.] वेयणमहाहियारे वेयणदध्वविहाणे सामितं [१५. ठविदे इच्छिददव्वफ्माण होदि । एवं विदियं तदिये, तदियं चउत्थे, चउस्थं पंचमे पक्खिषिय णेदव्वं जाव हेट्ठिमविरलणसव्वरूवधरिद उवरिमविरलगचरिमगुणहाणिदव्वेसु पनि ति । एत्थ एगरूवपरिहाणी लब्भदि । पुणो तदणंतरएगरूवधरिदं हेट्ठिमविरलणाए समखंडं करिय दिण्णे तदणंतररूवधरिदप्पहुडि पुत्वं व पक्खित्ते' एत्थ बिदियरूवपरिहाणी लब्भदि । एवं उवरिमविरलणसव्वदव्वस्स समकरणे कदे परिहीणरूवाणमाणयणविहाणं वुच्चदे । तं जहा-रूवाहियद्विमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो रूवूणण्णोण्णब्भत्थरासिमेनुवरिमविरलणाए किं लभामो चि | पमाणेण फलगुणिदिच्छामोवट्टिय लद्धं उवरिमविरलणम्मि सोहिदे | सेसमिच्छिदभागहारो होदि । तस्स संदिट्ठी ३१५० ।। ___ संपधि मोहणीयस्स एत्थ अवणिदरूवाणि असंखज्जाणि हवंति, गुणहाणितिण्णिचदुभागेण रूवाहिएण रूवूणण्णोण्णब्भत्थरासिम्मि ओवडिदे असंखेज्जरूवागमणदंसणादो । सेसकम्माणं पुण अवणिदपमाणमेगरूवस्स असंखज्जीदभागो, भागहारभूदगुणहाणितिण्णिहै। इस प्रकार द्वितीयको तृतीयमें, तृतीयको चतुर्थमें, चतुर्थको पंचममें मिलाकर अधस्तन विरलन सम्बन्धी सब अंकोंके प्रति प्राप्त द्रव्यके उपरिम विरलन सम्बन्धी निके द्रव्योंमें प्रविष्ट होने तक ले जाना चाहिये। यहां एक अंककी हानि पायी जाती है। फिर तदनन्तर एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको अधस्तन विरलनके ऊपर समखण्ड करके देकर इसे उपरिम विरलनमें तदनन्तर अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यसे लेकर पहिलेके समान मिलानेपर यहां द्वितीय अंककी हानि पायी जाती है। इस प्रकार उपरिम विरलन राशि सम्बन्धी सब द्रव्यका समीकरण करनेपर कम हुए अंकोंके लानेका विधान कहते हैं। यथा- एक अधिक अधस्तन विरलन मात्र स्थान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशि मात्र उपरिम विरलनमें कितने अंकोंकी हानि होगी, इस प्रकार फल राशिसे गुणित इच्छा राशिको प्रमाण राशिसे अपवर्तित करनेपर जो लब्ध हो उसे उपस्मि विरलनमेंसे कम कर देनेपर शेष रहा इच्छित भागहार होता है। उसकी संदृष्टि उदाहरण-यदि ६ + १ पर एक अंककी हानि होती है तो ६३ पर कितने अंकों की हानि होगीः-६३४१ ५ = ११, ६३ = ७५६, ५२७ - १ = १५. इच्छित भागहार। अब यहां मोहनीय कर्मके हीन हुए अंक असंख्यात हैं, क्योंकि, गुणहानिके एक अधिक तीन चतुर्थ भागका एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिमें भाग देनेपर असं. ख्यात रूपोंका आगमन देखा जाता है। परन्तु शेष कौके कम हुए अंकोंका प्रमाण एक रूपके असंख्यातवें भाग मात्र होता है, क्योंकि, भागहारभूत गुणहानिके तीन-चतुर्थ १ प्रतिषु 'पुष्वपक्खित्ते' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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