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________________ १५६) छक्खंडागमे वेयणाखंड (४, २, ४, ५९. संखेज्जवग्गेण गुणहाणिअद्धाणे भागे हिंदे भागलद्धमत्ताणि पक्खेवरूवाणि होति । अणवहिदभागहारे चदुरूवपमाणे जादे पक्खेवरूवाणं किं पमाणं १ गुणहाणिअद्धाणस्स बत्तीसदिमभागो पक्खेवरूवाणि । अणवहिदभागहारे दोरूवमेत्ते जादे पक्खेवरूवाणं पमाणं गुणहाणीए अट्ठमभागो । अणवहिदभागहारे एगरूवमेत्ते जादे पक्खेवरूवाणि गुणहाणिदुभागमेत्ताणि होति । एदाणि चडिदद्धाणम्मि पक्खित्ते दिवड्वगुणहाणीओ हति । एदाहि चरिमणिसेगमागहारे ओवट्टिदे रूवूणण्णोण्णभत्थरासी तदित्थसंचयस्स भागहारो होदि। __ संपधि समयाहियगुणहाणिमुवरि चढिदूण बद्धसमयपबद्धसंचयस्स किंचूणण्णोणभत्थरासी भागहारो होदि । तं जहा- अण्णोण्णभत्थरासिं रूवूर्ण विरलेदूण समयपषद्धदव्वं समखंडं करिय दिण्णे एक्केक्कस्स रूवस्स चरिमगुणहाणिदव्वं पावदि । पुणो दुचरिमगुणहाणिचरिमणिसेगण |१८ चरिमगुणहाणिदवे भागे हिदे भागलद्धमेदं | ५० पुव्वविरलणाए हेट्ठा विरलेदूण उवीरमएगरूवधरिदं समखंडं करिय दिण्णे विरलणरूवं ९ । पडि दुचरिमगुणहाणिचरिमणिसेगो पावेदि । एत्थ एगरूवधरिदं घेतूण उवरिमविरलणाए एगरूवधरिदचरिमगुणहाणिदव्वम्मि शंका-अनवस्थित भागहारके चार अंक प्रमाण होनेपर प्रक्षेप रूपोंका प्रमाण कितना होता है? समाधान-उक्त प्रक्षेप रूप उस समय गुणहानिअध्वानके बत्तीसवें भाग मात्र होते हैं। ___अनवस्थित भागहारके दो अंक प्रमाण होनेपर प्रक्षेप रूपोका प्रमाण गुणहानिके आठवें भाग मात्र होता है। अनवस्थित भागहारका प्रमाण एक अंक मात्र होनेपर प्रक्षेप अंक गुणहानिके द्वितीय भाग प्रमाण होते हैं। इनको आगेके विवक्षित अध्वानमें ' मिलानेपर डेढ़ गुणहानियां होती हैं। इनके द्वारा चरम निषेकभागहारको अपवर्तित करने पर एक कम अन्योन्याम्यस्त राशि वहाँके संचयका भागहार होता है। ब एक समय आधक गुणहानि प्रमाण स्थान आगे जाकर बांधे गये समयप्रबद्धके संचयका भागहार कुछ कम अन्योन्याभ्यस्त राशि होती है । यथा-रूप कम अन्योन्याभ्यस्त राशिका विरलन करके समयप्रबद्धके द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति अन्तिम गुणहानिका द्रव्य प्राप्त होता है । पश्चात् द्विचरम गुणहानिके चरम निषेकका चरम गुणहानिके द्रव्यमें भाग देनेपर लब्ध हुर ५. इसका पूर्व विरलनके नीचे विरलन करके उपरिम विरलनके एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देने पर विरलन राशिके प्रत्येक एकके प्रति द्विचरम गुणहानिका चरम निषक प्राप्त होता है। यहां एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको ग्रहण करके उपरिम घिरलनके एक मंकके प्रति प्राप्त चरम गुणहानिके द्रव्यमें स्थापित करनेपर इच्छित द्रब्यका प्रमाण होता प्रति किंचूणरूवणण्णोण्ण' इति पाठः । ३ प्रतिष्वतः प्राक् णाणावरणीय विरलिय विगं करिय' इत्यधिक प्राप्यते। ३ प्रतिषु ५० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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