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________________ १८४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, १८९ समुहिदत्ताणुववत्तीदो त्ति । एत्थ किं जोगट्ठाणाणि बहुवाणि आहो एगफद्दयवग्गणाओ त्ति पुच्छिदे जोगहाणाणि थोवाणि । एयफद्दयवग्गणाओ असंखेज्जगुणाओ। कधमेदं णव्वदे ? अप्पाबहुगवयणादो । तं जहा- सव्वत्थोवाणि जोगट्ठाणाणि । एयफद्दयवग्गणाओ असंखेज्जगुणाओ। अंतर-णिरंतरद्धाणं' असंखेज्जगुणं । फद्दयाणि विसेसाहियाणि एगरूवेण । णाणाफद्दयवग्गणाओ असंखेज्जगुणाओ । जीवपदेसा असंखेज्जगुणा । अविभागपडिच्छेदा असंखेज्जगुणा त्ति। बिदिए जोगट्टाणे फद्दयाणि विसेसाहियाणि ।। १८९ ॥ जहण्णजोगट्ठाणपक्खेवभागहारेण सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेण कदजुम्मेण जहण्णजोगट्ठाणजहण्णफद्दएसु ओवट्टिदेसु एगो जोगपक्खेवो अंगुलस्स' असंखेज्जदिभागमेत्तजहण्णफद्दयपमाणो वड्डिहाणीणमभावेण अवट्टिदो आगच्छदि । एदम्हि पक्खेवे जहण्णट्ठाणं पडिरासिय पक्खित्ते बिदियजोगट्ठाणं होदि । तेण पढमजोगट्ठाणफद्दएहिंतो बिदियजोगट्ठाणफद्दयाणि विसेसाहियाणि त्ति वुत्तं । एदेहि अंगुलस्स असंखेज्जदिमागमेतजहण्णफद्दएहि चरिमफद्दयादो उवरि अण्णमपुव्वं फद्दयं ण उप्पज्जदि, चरिमफद्दयाविभागपडिच्छेदेहितो यहां क्या योगस्थान बहुत हैं या एक स्पर्धककी वर्गणायें बहुत हैं, ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं कि योगस्थान स्तोक हैं। उनसे एक स्पर्धककी वर्गणायें असंख्यातगुणी हैं। शंका- यह कैसे जाना जाता है ? समाधान- वह अल्पबहुत्वके कथनसे जाना जाता है । यथा-- योगस्थान सबसे स्तोक हैं । उनसे एक स्पर्धककी वर्गणायें असंख्यातगुणी हैं। उनसे अन्तरनिरन्तरध्वान असंख्यातगुणा है। उनसे स्पर्धक एक संख्यासे विशेष अधिक हैं। उनसे नाना-स्पर्धकवर्गणायें असंख्यातगुणी हैं। उनसे जीवप्रदेश असंख्यातगुणे हैं। उनसे अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हैं। दूसरे योगस्थानमें स्पर्धक विशेष अधिक हैं ॥ १८९ ॥ जघन्य योगस्थान सम्बन्धी प्रक्षेपभागहारका जो कि श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण व कृतयुग्म है, जघन्य स्पर्धकों में भाग देनेपर अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र जघन्य स्पर्धक प्रमाण एक योगप्रक्षेप आता है । यह योगप्रक्षेप वृद्धि व हानिका अभाव होनेसे अवस्थित है। इस प्रक्षेपमें जघन्य स्थानको प्रतिराशि करके मिलानेपर द्वि स्थान होता है। इसीलिये प्रथम योगस्थानके स्पर्धकों से द्वितीय योगस्थानके स्पर्धक विशेष अधिक है, ऐसा कहा गया है। इन अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र जघन्य स्पर्धकोसे चरम स्पर्धकसे आगे अपूर्व स्पर्धक नहीं उत्पन्न होता, क्योंकि, चरम स्पर्धकके अविभाप्रगतिच्छेदोंसे प्रक्षेपके अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे हीन पाये जाते हैं। १ प्रतिषु 'अंतरणिरंतरकाए' इति पाठः । २ ताप्रती · अण्णमपुवफडयं ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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