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१, २, ४, २८.) वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त
[७५ विसेसाहियाओ। केत्तियमेत्तेण ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तेण । सव्वाओ विसेसाहियाओ । केत्तियमेत्तेण १ हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागमेत्तेण । एगगुणहाणिअद्धाणमसंखेज्जगुणं ।
- एदम्हादो अविरुद्धाइरियवयणादो णव्वदे' जहा [जीव-] जवमज्झहेट्ठिमअद्धाणादो उवरिमअद्धाणं विसेसाहियमिदि ।
एत्थतणजीवअप्पाबहुगादो वा । तं जहा- जहण्णजोगट्ठाणजहण्णजीवप्पहुडि जा
उनसे उपरिम नानागुणहानिशलाकायें विशेष अधिक हैं । कितनी अधिक हैं ? पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण अधिक हैं । उनसे सब नानागुणहानिशलाकायें विशेष अधिक हैं । कितनी अधिक हैं ? अधस्तन नानागुणहानिशलाका प्रमाण अधिक हैं । एक गुणहानिका अध्वान असंख्यातगुणा है।
इस प्रकार इस अविरूद्ध आचार्यवचनसे जाना जाता है कि जीवयवमध्यके अधस्तन स्थानसे उपरिम स्थान विशेष अधिक है।
विशेषार्थ- यहां ' एवं संसरिदूण त्थोवावलेसे जीविदव्वए' इत्यादि सूत्रकी व्याख्या चालू है । इसमें ' योगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक रहा' यह कहा है। प्रश्न यह है कि यहां योगयवमध्यसे किसका ग्रहण किया जाय? योगयवमध्यका ग्रहण किया जाय या जीवयवमध्यका । वीरसेन स्वामीने बतलाया है कि योगयवमध्यके अधस्तन भागसे उपरिम भाग असंख्यातगुणा होनेसे वहां चारों हानियां और चारों वृद्धियां सम्भव हैं और अन्तर्मुहूर्त काल तक जीवका वहीं रहना सम्भव है, इसलिये योगयवमध्य इस पद द्वारा उसीका ग्रहण करना चाहिये, जीवयवमध्यका नहीं। इसपर यह प्रश्न हुआ कि जीवयवमध्यके उपरिम भागमें जीवका अन्तर्मुहूर्त काल तक रहना क्यों सम्भव नहीं है ? वीरसेन स्वामीने इसी प्रश्नका उत्तर देनेके लिये प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व, इन छह अनुयोगद्वारोंके द्वारा यह सिद्ध किया है कि योगयवमध्य संक्षित जीवयवमध्यके नीचेके भागसे उपरिम भाग मात्र विशेषाधिक है, इसलिये इसके उपरिम भागमें जीवका अन्तर्मुहूर्त काल तक रहना सम्भव नहीं है। यही कारण है कि यहां योगयवमध्य पदसे उसीका ग्रहण किया गया है, जीवयवमध्यका नहीं।
अथवा यहांके जीवोंके अल्पबहुत्वसे वह जाना जाता है। यथाजघन्य योगस्थानके जघन्य जीवनिषेकसे लेकर उत्कृष्ट योगस्थान तक जीव.
१ का-मप्रत्योः 'णज्जदे' इति पाठः ।
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