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________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [१,२ ४, १२२. विगलपक्खेवभागहारो होदि । पुणो एत्थ परमाणुत्तरादिकमेण भागहारमेत्तेसु विगलपक्खेवेसु वड्डिदेसु एगो सगलपक्खेवो वड्ढदि । एवं ताव वड्ढावेदवो जाव तिचरिमगुणहाणीए चरिमणिसेगम्मि जेत्तिया सयलपक्खेवा अस्थि तत्तियमेत्ता वढिदा ति । पुणो तस्स सयलपक्खेवाणं गवसणा कीरदे । तं जहा - चरिमगुणहाणिचरिमजिसेगमागहारस्स चदुब्भागो एत्थ विगलपक्खेवभागहारो होदि । कुदो ? चरिमगुणहाणिचरिमणिसेगादो एदस्स णिसेगस्स चदुगुणत्तुवलंभादो । एदेण विहाणेण ओदारिज्जमाणे जिस्से जिस्से गुणहाणीए पढमसमए विगलपक्खेवो इच्छिज्जदि तिस्से तिस्से गुणहाणीए उपरिमगुणहाणिसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थरासिणा रूवूणेण णाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिम्हि रूवूणम्मि भागे हिदे लद्धं विगलपक्खेवभागहारो होदि । विगलपक्खेवभागहारमेत्तमुवरि चडिदण बंधमाणस्स एगसगलपक्खेवो पविसदि । इच्छिदणाणागुणहाणिसलागाओ विरलिय विग करिय अण्णोण्णब्भत्थरासिणा चरिमगुणहाणिचरिमणिसेगभागहारे भागे हिदे तदित्थअधिकारंगोवुच्छाए विगलपक्खेवभागहारो होदि। भागहार होता है। पुनः इसमें एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे भागहार प्रमाण विकल प्रक्षेपोंकी वृद्धि होनेपर एक सकल प्रक्षेप बढ़ता है। इस प्रकार त्रिचरम गुणहानिके चरम निषेकमें जितने सकल प्रक्षेप हैं उतने मात्र सकल प्रक्षेपोंके बढ़ जाने तक बढ़ाना चाहिये। अब उसके सकल प्रक्षेपोंकी गवेषणा करते हैं। वह इस प्रकार है- चरम गुणहानिके चरम निषेक सम्बन्धी भागहारके चतुर्थ भाग प्रमाण यहां विकल प्रक्षेपका भागहार होता है, क्योंकि, चरम गुणहानिके चरम निषेकसे यह निषेक चौगुणा पाया जाता है । इस रीतिसे उतारते हुए जिस जिस गुणहानिके प्रथम समयमें विकल प्रक्षेपकी इच्छा हो उस उस गुणहानिकी उपरिम गुणहानिशलाकाओंका विरलन करके दुगुणा कर एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिका नानागुणहानिशलाकाओंकी एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उतना विकल प्रक्षेपका भागहार होता है । विकल-प्रक्षेप-भागहार मात्र ऊपर चढ़कर आयुको बांधनेवालेके एक सकल प्रक्षेप प्रविष्ट होता है । इच्छित नानागुणहानिसलाकाओंका घिरलन कर दुगुणा करके अन्योन्याभ्यस्त राशिका चरम गुणहानिके चरम निषेक सम्बन्धी भागहारमें भाग देनेपर वहांकी अधिकार गोपुच्छाके विकल प्रक्षेपका भागहार होता 1 अ-भा-काप्रतिषु 'अनिकार' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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