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________________ ४, २, ४, ३२.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्यविहाणे सामितं ५० । एदमद्धाणं रूवाहियं गतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणम्मि १९ किं लभामो त्ति | ६९।१।६३ | पमाणेण फलगुणिदमिच्छामोवट्टिय लद्धमुवरिमविरलणम्मि सोहिदे । १९ पयदसंचयस्स भागहारो होदि | ३१५० ।। एदेण समयपबद्ध भागे हिदे दुचरिमगुणहाणिचरिम-दुचरिमणिसेगेहि । ६९ । सह चरिमगुणहाणिदव्वमागच्छदि १३८ । एवमुवरि जाणिदूण तीहि विरलणाहि भागहारो साधेदव्यो । णवरि तिसमयाहियगुणहाणिमुवरि चडिदूण बद्धसंचयस्स भागहारसंदिट्ठी ३१५। चदुसमयाहियगुणहाणिमुवरि चडिदूण बद्धसंचयस्स भागहारसंदिट्ठी । ८. १५७५ । पंचसमयाहियगुणहाणिमुवरि चडिदृण बद्धसंचयस्स भागहारसंदिट्ठी ६३०।। | ४६ । छसमयाहियगुणहाणिमुवरि चडिदूण बद्धसंचयस्स भागहारसंदिट्ठी २१, ३१५० । सत्तसमयाहियगुणहाणिमुवरि चडिदूण बद्धसंचयस्स भागहारसंदिट्ठी १५७१। । ११९ एवं गंतूण कम्मट्ठिदिपढमसमयादो दोगुणहाणिमेत्तद्धाणं चडिद्ग | ६७ बद्धव्वभागहारो [रूवूण-] अण्णोण्णब्भत्थरासिस्स तिभागो होदि २१ । दोगुणहाणीओ ___एक अधिक यह स्थान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलनमें कितने अंकोंकी हानि पायी जावेगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाका अपवर्तन कर लब्धको उपरिम विरलनमेंसे कम करनेपर प्रकृत संचयका भागहार होता है-६३४१ : ३६ = १६०, ६३= ४१४७, १४७ - १३= १५ । इसका समयप्रबद्ध में भाग देने पर विचरम गुणहानिके चरम और द्विचरम निषेकों के साथ चरम गुण हानिका द्रव्य आता है-६३००:१५° = १३८ = (१००+१८+२०)। इस प्रकार आगे जानकर तीन विरलनोंसे भागहारको सिद्ध करना चाहिये। विशेषता केवल इतनी है कि तीन समय अधिक गुणहानि प्रमाण स्थान आगे जाकर बांधे गये द्रव्यके संचय सम्बन्धी भागहारकी संदृष्टि १५ है। चार समय अधिक एक गुणहानि प्रमाण स्थान आगे जाकर बांधे गये द्रव्यके संचय सम्बन्धी भागहारकी संदृष्टि '१५ है। पांच समय अधिक एक गुणहानि प्रमाण स्थान आगे जाकर बांधे गये द्रव्यके संचय सम्बन्धी भागहारकी संदृष्टि है। छह समय अधिक एक गुणहानि प्रमाण स्थान आगे जाकर बांधे गये द्रव्यके संचय सम्ब भागहारकी संदृष्टि १५ है। सात समय अधिक एक गुणहानि प्रमाण स्थान आगे जाकर बांधे गये द्रव्यके संचय सम्बन्धी भागहारकी संदृष्टि ११७५ है। इस प्रकार जाकर कर्मस्थिति के प्रथम समयसे लेकर दो गुणहानि मात्र स्थान आगे जाकर बांधे गये द्रव्यके संचयका भागहार [एक कम ] अन्योन्याभ्यस्त राशिके तृतीय भाग मात्र होता १ = २१ । चूंकि दो गुणहानियां चढ़ा है, अतः दो अंकोंका विरलन कर दुगुणा छ, वे. २२. Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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