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________________ १७० छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, ३२. चडिदो त्ति दोरूवाणि विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थं करिय रूवमवणिदे तिण्णि रूवाणि लब्भंति, तेहि रूवूणण्णोण्णब्भत्थरासिम्मि ओवट्टिदे तस्स तिभागविलंभादो । एदेण समयपबद्धे भागे हिदे पढम-बिदियगुणहाणीयो चडिऊण बद्धदव्वसंचओ आगच्छदि | ३००।। संपहि समयाहियदोगुणहाणीयो चडिऊण बंधमाणस्स रूवूणण्णोण्णब्भत्थरासितिभागो किंचूणो भागहारो होदि । तं जहा-रूवूणण्णोण्णब्भत्थरासितिभागं विरलेदूण समयपबद्धं समखंडं करिय दिण्णे चरिम [-दुचरिम ] गुणहाणिदव्वं पावदि । पुणो तदणंतरतिचरिमगुणहाणिचरिमणिसेगेण संह आगमणमिच्छिय |३६ | एदेण चरिम-दुचरिमगुणहाणिदव्वे भागे हिदे धुवरासी आगच्छदि २५ । एदं विरलेदण उवरिमविरलणेगरूवधरिदं समखंडं करिय दिण्णे तिचरिमगुणहाणि-|३| चरिमणिसेगो पावदि । तं बिदियरूवधरिदप्पहुडि दादूण समकरणे कीरमाणे परिहीणरूवाणं पमाणं वुच्चदे- रूवाहियहेडिमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि' एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणाए किं करके और परस्पर गुणा करके उसमेंसे एक अंकको कम करनेपर तीन अंक प्राप्त होते हैं, क्योंकि, उनका एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिमें भाग देनेपर उसका तृतीय भाग आता है-[(६४ - १) (२४२ - १) = २१] । इसका समयप्रबद्ध में भाग देनेपर प्रथम व द्वितीय गुणहानियां आगे जाकर बांधे गये द्रव्यका संचय आता है६३००:२१ % ३०० । अब एक समय आधिक दो गुणहानि प्रमाण स्थान आगे जाकर बांधे जानेवाले गहार एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिके तृतीय भागसे कुछ कम होता है। वह इस प्रकारसे-एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिके तृतीय भागका विरलन करके समयप्रबद्धको समखण्ड करके देने पर अन्तिम [ व द्विचरम ] गुणहानिका द्रव्य प्राप्त होता है [ ६४-१ = २१, ६३००:२१ = ३०० चरम और द्विचरम गुणहाणियोंका द्रव्य]। पुनः चूंकि तदनन्तर त्रिचरम गुणहानिके चरम निषेकके साथ लाना अभीष्ट है, अतः इस (३६) का चरम और द्विचरम गुणहानियोंके द्रव्य में भाग देनेपर ध्रुवराशि आती है-३००:३६=२७ । इसका विरलन करके उपरिम विरलन राशिके एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर त्रिचरम गुणहानिका चरम निषेक प्राप्त होता है [३०="g°; 8°:२७-३६ त्रिचरम गुणहानिका चरम निषक] | फिर उसे [उपरिम विरलनके ] द्वितीय आदि अंकोंके प्रति प्राप्त द्रव्यमें देकर समीकरण करनेपर हीन हप अंकोंका प्रमाण बतलाते है-एक अधिक अधस्तन विरलन प्रमाण स्थान जाकर यदि एक अंककी हानि पायी जाती है तो ऊपरकी विरलन राशिमें कितने अंकोंकी १ प्रतिषु ' लद्ध' इति पाठः। २ अ-काप्रत्योः 'समयाहियाहिंदो' इति पाठः । ३ अ-काप्रत्योः वड्डी' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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