SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, २, ४, ३७j वेयणमहाहियारे धेयणदव्यविहाणे सामितं (२२५ उक्कस्सविसोहीए च जहा सेसकम्माणि बझंति ण तहा आउअं बझदि, किंतु तपाओग्गेण मज्झिमसकिलेसेण बज्झदि ति जाणावणहं तप्पाओग्गसंकिलेसविसेसणं कदं । तप्पाओग्गउक्कस्सजोगेणेत्ति पंचमं विसेसणं किम8 कीरदे ? बहुदव्वगहणई। जदि एवं तो उक्कस्सजोगेणेत्ति किण्ण उच्चदे ? ण, दोसमए मोसूण उक्कस्साउअ. बंधगद्धामेत्तकालमुक्कस्सजोगेण परिणमणाभावादो । जाव सक्कदि ताव उक्कस्साणि चेष जोगट्टाणाणि परिणमिय जो बंधदि सो उक्कस्सदव्वसामी होदि त्ति उत्तं होदि। एत्थ बंधदि ति पलमणिदेसो णिप्फलो, बंधदि ति बिदियणिद्देसत्थदौ तस्स पुषभूदत्थाणुवलंभादो त्ति ? ण, पढमस्स बंधमाणढे वट्टमाणस्स बंधदि ति एदस्सो पउत्तिविरोहादो। तप्पाओग्गउक्कस्सजोगविसयपदुप्पायणमुतरसुतं भणदि जोगजवमज्झस्सुवरिमंतोमुहुत्तद्धमच्छिदो ॥ ३७॥ समाधान - जैसे उत्कृष्ट संक्लेश और उत्कृष्ट विशुद्धिसे शेष कर्म बंपते हैं वैसे आयु कर्म नहीं बंधता, किन्तु अपने योग्य मध्यम संक्लेशसे वह वैधता है। इसके शापनार्थ 'उसके योग्य संक्लेशसे' यह विशेषण किया है। शंका- 'उसके योग्य उत्कृष्ट योगसे' यह पांचवां विशेषण किसलिये किया है? समाधान- बहुत द्रव्यका प्रहण करने के लिये उक्त विशेषण किया है। शंका- यदि ऐसा है तो फिर 'उत्कृष्ट योगसे' इतना ही क्यों नहीं कहा? समाधान- नहीं, क्योंकि, दो समयोंको छोड़कर उत्कृष्ट भायुवन्धककाल प्रमाण समय तक जीवका उत्कृष्ट योग रूपसे परिणमन नहीं हो सकता। इसलिये जहां तक शक्य हो वहां तक उत्कृष्ट ही योगस्थानोंको प्राप्त हो कर जो जीष भायुकों बांधता है वह उत्कृष्ट द्रव्यका स्वामी होता है, यह कहा है। शंका- यहां सूत्रमें ' बंधदि ' यह प्रथम निर्देश निरर्थक है, क्योंकि, 'बंधदि' इस द्वितीय निर्देशके अर्थसे उसका कोई भिन्न अर्थ नहीं पाया जाता ? __ समाधान- नहीं, क्योंकि प्रथम पद 'बांधनेवाला' इस भर्थमे विद्यमान है इसलिये उसकी 'बांधता है' इस अर्थमें प्रवृत्ति मानने में विरोध पाता है। अब उक्त मायुके योग्य उत्कृष्ट योग विषयक प्रकपणा करने के लिये उत्तर सूत्र कहते हैं योगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक रहा ॥ ३७॥ तापती विदियणि सत्यो ' इति पातः।। योगयवमन्यस्योपयन्सहल स्थितः । गो. नी. (बी.प्र.) १५०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy