________________
२३६]
छक्खंडागमै वैयणाखंड { ४, २, ४, ३८. अट्ठसमयपाओग्गाणं सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तजोगट्ठाणाणं जोगजवमज्झमिदि सण्णा, हिदीदो ठिदिमंताणं जोगाणं कधचि अभेदादो । जोगो चेव जवमझं जोगजनमज्झमिदि तेण कम्मधारयसमासो एत्थ जुज्जदे । अधवा जो जोगजवस्स मज्झं असमयकालो सो जोगजवमज्झं, तस्स उवीरं अंतोमुहुत्तद्धमच्छिदो । कुदो ? तत्थतणजोगाणं हेटिमजोगेहिंतो असंखेज्जगुणत्तादो। अंतोमुहुत्तं मोत्तूण तत्थं बहुग कालं किण्ण अच्छदे ? ण, तत्थ अच्छणकालस्स वि अंतोमुहुत्तमेतत्तादो अंते।मुहुत्तादो अहियआउगबंधगद्धामावादो च । ण च जोगजवमज्झाद। उवरिमंतोमुहुत्तावहाणं ण संभवदि, असंखेज्जगुण वडिअद्धाणम्मि तदसंभवविरोहादों ।
चरिमे जीवगुणहाणिट्ठाणंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिदो ॥ ३८ ॥
आवलियाए असंखेज्जदिभागं मोतण बहुगं कालं किण्ण अच्छदि ? ण, तिण्णिवडि-तिण्णिहाणीसु उक्कस्सच्छणकालस्स वि आवलियाए असंखेज्जदिभागत्तं मोत्तूण
यहां योगयवमध्यके दो अर्थ लिये गये हैं। प्रथम तो आठ समयके योग्य जो श्रेणीके असंख्यात भाग मात्र योगस्थान होते हैं उनकी योगयवमध्य संशा है, क्योंकि, स्थितिसे उस स्थितिवाले योगोंका कथंचित् अभेद है। इसीलिये यहां ' योग ही यवमध्य योगयवमध्य' ऐसा कर्मधारयसमास करना युक्त है। दूसरे, जो योगयचका
आठ समय काल है वह योगयवमध्य कहलाता है। उसके ऊपर अन्तर्मर्स काल सक रहा, क्योंकि, यहांके योग अधस्तन योगोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणे होते हैं।
शंका- अन्तर्मुहूर्तको छोड़कर वहां बहुत काल तक क्यों नहीं रहता ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, एक तो वहां रहनेका काल ही अन्तर्मुहूर्त मात्र है, और दूसरे आयुबन्धककाल भी अन्तर्मुहूर्तसे अधिक नहीं पाया जाता।
यदि कहा जाय कि योगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक रहना सम्भव महीं है सो भी बात नहीं है, क्योंकि, असंख्यातगुणवृद्धि रूप स्थानमें अन्तर्मुहूर्त काल तक रहनेको असम्भव मानने में विरोध आता है।
अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तरमें आवलोके असंख्यातवें भाग काल तक रहा ॥३८
शंका- आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण कालको छोड़ कर बहुत काल तक यहां क्यों नहीं रहता?
समाधान- नहीं, क्योंकि तीन वृद्धियों और तीन हानियों में उत्कृष्ट रूपसे भी रहनेका काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है, इसको छोड़कर वहां उपरिम
, आप्रतौ ‘तदसंभवाविरोहादो' इति पाठः । २. चरमजीवगुण हानिस्थानान्तरे आवस्यसंख्यामाग. मानकालं स्थितः । गो. जी. (जी. प्र.) २५८,
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org