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________________ ४, २, ४, ६९. वैयणमहाहियारे वैयणदबविहाणे सामित्त ।१३७ उवरिमसंखाणुवलंभादो । ण च चरिमे' जीवगुणहाणिट्ठाणंतरे असंखेज्जदिभागवड्डि-हाणीओ मोत्तूण अण्णवडि-हाणीणं संभवो अस्थि, विरोहादो । सो च विरोहो पुध्वं परूविदो त्ति मेह उच्चदे पुणरुतभएण । कमेण कालगदसमाणो पुवकोडाउएसु जलचरेसु उववण्णो परभविआउए बद्धे पच्छा भुंजमाणाउअस्स कदलीघादो गस्थि जहासरूवेण चेव वेदेदित्ति जाणावणटुं 'कमेण कालगदो' ति उत्तं । परमवियाउअंबंधिय भुंजमाणाउए घादिज्जमाणे को दोसो ति उत्ते ण, णिज्जिण्ण जमाणाउअस्स अपत्तपरभवियाउअउदयस्स चउगइबाहिरस्स जीवस्स अभावप्पसंगादो।"जीवा णं भंते ! कदिभागावसेसियंसि याउगंसि परमवियं आउगं कम्मं णिबंधंता बंधति ? गोदम ! जीवा दुविहा पण्णता संखेज्जवस्साउआ चेव असंखेज्जवस्साउआ चेव । तत्थ जे ते असंखेज्जवस्साउआ ते छम्मासावसेसियंसि संख्या नहीं पायी जाती। और अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्त में असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिके सिवा अन्य वृद्धियां व अन्य हानियां नहीं पाई जाती, क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है। यह विरोध चूंकि पूर्व में कहा जा चुका है, अत एव पुनरुक्तिके भयसे उसे यहां नहीं कहते । क्रमसे कालको प्राप्त होकर पूर्वकोटि आयुवाले जलचरोंमें उत्पन्न हुआ ॥ ३१ ॥ परभव सम्बन्धी आयुके बंधने के पश्चात् भुज्यमान आयुका कदलीघात नहीं होता, किन्तु वह जितनी थी उतनीका ही वेदन करता है। इस बातका ज्ञान कराने के लिये 'क्रमसे कालको प्राप्त होकर ' यह कहा है। शंका-परभधिक आयुको बांधकर भुज्यमान आयुका घात मानने में कौनसा दोष है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, जिसकी भुज्यमान आयुकी निर्जरा हो चुकी है, किन्तु अभी तक जिसके परमविक आयुका उदय नहीं प्राप्त हुभा है उस जीवका चतुर्गतिके बाह्य हो जानेसे अभाव प्राप्त होता है। - शंका- "हे भगवन् ! आयुमें कितने भाग शेष रहनेपर जीव परभविक आयु कर्मको बांधते हुए बांधते हैं ? हे गौतम ! जीव दो प्रकारके कहे गये हैं- संख्यातवर्षायुष्क और असंख्यातवर्षायुष्क। उनमें जो असंख्यातवर्षायुष्क हैं वे आयुके मंशोमें 1 अप्रतौ .. पुत्रलंभादो च ण चरिमे ' इति पाठः । २ अमेण कालं गमयित्ता पूर्वकोटवायुर्जकचरेषु उत्पनः । गो. जी. (जी. प्र.) २५८. ३ प्रतिष 'बंधे' इति पाठः। ४ अ-आ-काप्रतिष चिउगहबोरिस दीवस्स ' इति पाठः । ५ तातो ' भागावससियं सिपायुग सिया परमनियं' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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