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________________ ८२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, २८. लन्मदि। एवं पुणो पुणो कादव्वं जाव उवरिमविरलणरासिधरिदसव्वजीवा विदियजोगट्ठाणजीवपमाणं पत्ते त्ति । एत्थ परिहीणरूवाणं पमाणं वुच्चदे । तं जहा-- रूवाहियगुणहाणिमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी उवरिमविरलणाए लब्भदि तो किंचूणतिगुणण्णोण्णब्भत्थरासिमेत्तउवरिमगुणहाणिविरलणाए केत्तियाणि परिहीणरूवाणि लभामो त्ति रूवाहियगुणहाणीए' उवरिमविरलणं खंडिय लद्धे तत्थेव अवणिदे बिदियजोगट्ठाणजीवाणमवहारो होदि । तस्स . संदिट्ठी। १.१ ।। प्रकार उपरिम विरलन राशिको प्राप्त हुए सब जीवोंके द्वितीय योगस्थानवी जीवोंके प्रमाणको प्राप्त होने तक बार बार करना चाहिये । अब यहां कम हुए अंकोंका प्रमाण कहते हैं । यथा- एक अधिक गुणहानि प्रमाण स्थान जाकर उपरिम विरलनमें यदि एक रूपकी हानि प्राप्त होती है तो कुछ कम तिगुणी अन्योन्याभ्यस्त राशि प्रमाण उपरिम गुणहानिविरलनमें कितने परिहीन रूप प्राप्त होंगे, इस प्रकार रूपाधिक गुणहानिसे उपरिम विरलनको खण्डित कर लब्धको उसीमेंसे कम कर देनेपर द्वितीय योगस्थानके जीवोंका अवहार होता है । उसकी संदृष्टि-७११ । विशेषार्थ- आशय यह है कि द्वितीय योगस्थानके जीवोंकी संख्या २० है। इसका कुल योगस्थानवी जीवराशि १४२२ में भाग देनेपर १.१ आते हैं। यही कारण है कि इस द्वितीय योगस्थानके जीवोंका प्रमाण लाने के लिये इतना अवहारका प्रमाण बतलाया है। प्रथम योगस्थानके जीवोंका प्रमाण लानेके लिये जो ७११ अवहारका प्रमाण बतला आये हैं उसमेंसे *१.१ घटानेपर दूसरे योगस्थानकी संख्या लानेके लिये भागहारका प्रमाण होता है। प्रथम योगस्थानकी जीवराशि लानेके लिये भागहार ७११, सब जीव राशि १४२२, गुणहानि आयाम'; प्रक्षेप ४; प्रथम योगस्थानकी राशि १६, अधस्तन विरलन ४४४४ = १६ प्रथम योगस्थान राशि ११११% ४ गुणहानि आयाम उपरितन विरलन १६ १६ १६ १६ १ १ १ १ १६ १६... १ १ १... "१५ स्थान १ प्रतिषु ' गुणहाणीणं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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