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________________ ४, २, ४, २८.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं [८३ . तदियजोगट्ठाणजीवपमाणेण सव्वदव्वे अवहिरिज्जमाण असंखेज्जगुणहाणिट्ठाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जदि । तं जहा- पुत्वविरलणाए हेट्ठा गुणहाणिदुभागं विरलेदूण उवरिमविरलणपढमरूवधरिदजहण्णजोगट्ठाणजीवणिसेगं समखंडं करिय दिपणे विरलणरूवं पडि दो दो पक्खेवा पावेंति । तत्थ एगरूवधरिदमुवरि बिदियरुवधरिदम्मि दिण्णे तदियणिसेगपमाणं होदि । एवं हेट्ठिमसव्वरूवधरिदेसु परिवाडीए पविढेसु एगरूवपरिहाणी होदि। एवं पुणो पुणो कीरमाणे एगरूवपरिहाणी होदि त्ति कट्ट तेसिं परिहाणिरूवाणमागमणविहाणं वुच्चदउवरिमविरलणम्मि रूवाहियहेट्टिमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो सव्विस्से उवरिमविरलणाए केवडियरूवपरिहाणिं लभामो त्ति रूवाहियगुणहाणिदुभागेण किंचूणण्णोण्णब्भत्थरासिमेत्त-तिसु गुणहाणीसु ओवट्टिदासु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो आगच्छदि । तं तत्थेव अवणिदे तदियणिसेगभागहारो होदि । तस्सेसा संदिट्ठी | | यहां ५ स्थान जाकर एककी हानि हुई है इसलिये ११ स्थान जानेपर ".. की हानि होगी। अतः १ - १ = ३५५१.७११ ७१ द्वितीय स्थानकी संख्या लानेके लिये भागहार । - तृतीय योगस्थानवी जीवोंके प्रमाणसे सब द्रव्यके अपहृत करनेपर असंख्यात गुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होता है। यथा- पूर्व विरलनके नीचे गुणहानिके द्वितीय भागका विरलन कर उपरिम विरलनके प्रथम अंकके प्रति प्राप्त जघन्य योगस्थानवी जीवनिषेकको समखण्ड करके देनेपर विरलनके प्रत्येक एकके प्रति दो दो प्रक्षेप प्राप्त होते हैं। वहां अधस्तन विरलनमें एक अंकके प्रति प्राप्त राशिको ऊपरके विरल नमें द्वितीय अंकके प्रति प्राप्त राशिके ऊपर देनेपर तृतीय निषेकका प्रमाण होता है । इस प्रकार अधस्तन विरलनके सब अंकोंके प्रति प्राप्त राशियोंके क्रमसे प्रविष्ट हो जानेपर एक अंककी हानि होती है । इस प्रकार पुनः पुनः करनेपर एक एक अंककी हानि होती है, ऐसा मानकर उन हीन अंकोंके लाने की विधि कहते हैं- एक अधिक अधस्तन विरलन प्रमाण स्थान जाकर यदि उपरिम विरलनमें एक अंककी हानि पायी जाती है तो पूरे उपरिम विरलनमें कितने अंकोंकी हानि प्राप्त होगी, इस प्रकार एक अधिक गुणहानिके द्वितीय भागसे अन्योन्याभ्यस्त राशि प्रमाण कुछ कम तीन गुणहानियोंके अपवर्तित करनेपर पल्योपमका असंख्यातवां भाग आता है। उसको उसी उपरिम विरलनमेंसे कम करनेपर तृतीय निषेकका भागहार होता है। उसकी यह संदृष्टि विशेषार्थ- यहां तृतीय योगस्थानके जीवोंका भागहार प्राप्त करना है। साधा. रणतः यह भागहार १४२२ में २४ का भाग देनेसे प्राप्त हो जाता है । पर प्रथम १ प्रतिषु · दुरूवाहिय ' इति पाठः। - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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