________________
१, २, ४, २१३.) वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया . [५११ पदेसबंधट्ठाणाणि त्ति वुत्ते जोगट्ठाणेहिंतो सबकम्मपदेसबंधट्ठाणाणमेगत्तं परविदं, पदेसा बझंति एदेणेत्ति जोगट्ठाणस्सेव पदेसबंधवाणववएसादो । बंधणं बंध। त्ति किण्ण घेप्पदे ? ण, पदेसबंधट्ठाणाणमाणंतियत्तप्पसंगादो । जदि जोगादो पदेसबंधो होदि तो सव्वकम्माणं पदेसपिंडस्स समाणत्तं पावदि, एगकारणत्तादो । ण च एवं, पुव्विल्लप्पाबहुएण सह विरोहादो त्ति । एवं पच्चवहिदसिस्सत्थमुत्तरसुत्तावयवो आगदो ‘णवरि पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि' त्ति। पयडी णाम सहाओ, तस्स विसेसो भेदो, तेण पयडिविसेसेण कम्माणं पदेसबंधट्ठाणाणि समाणकारणत्ते वि पदेसहि विसेसाहियाणि । तं जहा- एगजोगेणागदएगसमयपवद्धम्मि सव्वत्थोवो आउवभागो.। णामा-गोदभागो तुल्लो विसेसाहिओ। णाणावरणीयदंसणावरणीय-अंतराइयाणं भागो तुल्लो विसेसाहियो । मोहणीयभागो विसेसाहिओ। वेयणीयभागो विसेसाहिओ । सव्वत्थ विसेसपमाणमावलियाए असंखेज्जदिभागेण हेट्ठिम-हेट्ठिमभागे खंडिदे तत्थ एगखंडमेतं होदि । वुतं च
सब कर्मप्रदेशबन्धस्थानोंकी एकता बतलाई गई है, क्योंकि, प्रदेश जिसके द्वारा बंधते हैं वह प्रदेशबन्ध है, इस निरुक्तिके अनुसार योगस्थानकी ही प्रदेशबन्धस्थान संज्ञा प्राप्त है।
शंका- 'बन्धणं बंधो' ऐसा भावसाधन रूप अर्थ क्यों नहीं ग्रहण किया जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, इस प्रकारसे प्रदेशबन्धस्थानोंके अनन्त होनेका प्रसंग आता है।
यदि योगसे प्रदेशबन्ध होता है तो सब कर्मोके प्रदेशसमूहके समानता प्राप्त होती है, क्योंकि उन सबके प्रदेशबन्धका एक ही कारण है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा होनेपर पूर्वोक्त अल्पबहुत्वके साथ विरोध आता है। इस प्रत्यवस्था युक्त शिष्यके लिये उक्त सूत्रके 'णवरि पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि' इस उत्तर अवयवका अवतार हुआ है। प्रकृतिका अर्थ स्वभाव है, उसके विशेषसे अभिप्राय भेदका है। उस प्रकृतिविशेष. से कर्मों के प्रदेशबन्धस्थान एक कारणके होनेपर भी प्रदेशोंसे विशेष अधिक हैं। यथाएक योगसे आये हुए एक समयमबद्धमें सबसे स्तोक भाग आयु कर्मका है। नाम व गोत्रका भाग तुल्य व आयुके भागसे विशेष अधिक है । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय व अन्तरायका भाग तुल्य होकर उससे विशेष अधिक है। उससे मोहनीयका भाग विशेष अधिक है। उससे वेदनीयका भाग विशेष अधिक है । सब जगह विशेषका प्रमाण आवलीके असंख्यातवें भागसे नीचे नीचे के भागको खण्डित करनेपर उसमेंसे एक खण्ड मात्र होता है । कहा भी है
१ का-ताप्रयोः 'आणतियप्पसंगादो' इति पाठः । २ अ-आप्रत्योः 'पदेसे वि विसेसाहियाणि', काप्रतौ । 'पदेसे विसेसाहियाणि ', ताप्रतौ 'पदेसेवि (हि)', मप्रतौ ' पदेसेहि वि विसे साहियाणि ' इति पाठः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org