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________________ ४, २, ४, ४७.] बेथणमहाहियारे वैयणदव्वविहाणे सामित्त [२६७ परिहाणी सव्वे समए अस्सिदूण कायव्वा, एगस्सेव तप्पाओग्गजोगहाणपक्खेवभागहारमेत्तोयरणे संभवाभावादो। एवं परिहाइदृण विदो च, अण्णेगो समऊणबंधगद्धार पुन्वणिरुद्धजोगेहि आउअंबंधिय णेरइएसु उपज्जिय दीवसिहापढमसमयहिदो च सरिसा । एवं कमेंण बंधगद्धासमयाणं परिहाणी कायया जाव जहण्णबंधगद्धा अवहिदा ति: ___ एत्थ सव्वपच्छिमवियप्पो वुच्चदे । तं जहा--- जहण्णबंधगद्धाए तपाओगर लोग च णिरयाउअंबंधिय गेरइएसु उप्पन्जिय दीवसिहापढमसमए ठिदो ति ओदारेदव्वं । एग-दोपरमाणुपरिहाणिआदिकमेण एगविगलपक्खेवमेत्तअणुक्कस्सहाणाणि उप्पादेदव्याहि । एवं परिहाइदण विदो च, अण्णेगो समऊणजहणबंधगद्धाए सपाओगजोगेण बंधिय पुणो एगसमयं पक्खेऊगणिरुद्धजोगेण बंधिय दीवमिहापढमसमए विदो च, सरिता । एवं एक्क-दो-तिण्णिजोगहाणाणि सो णिरुद्धसमए ओदारेदवो जाव असंखे.णि जोगट्ठाणण ओदिण्णो त्ति । पुणो तं तत्थेव द्वविय एदेणेव कमेा बिदियसमओ असंखेजआणि जोगट्ठाणाणि ओदारदव्यो। एवमेदेण कमेण सव्वे समया तप्पाओग्गअसंखेज्जाणि [जोगट्ठाणाणि] ................... हानि सब समयोंका आश्रय करके करना चाहिये, क्योफि.ए समयका ही आश्रय कर उसके योग्य योगस्थान प्रक्षेपभागहार प्रमाण उतरने की सम्भावना नहीं हैं : इस प्रकार हानि करके स्थित हुआ जीव तथा एक समय कम बम्धकालमें पूर्व निर द्ध योगोंसे आयुको बांधकर नारकियों में उत्पन्न होकर दीपशिखाक प्रथा समयमें स्थित हुआ एक अन्य जीव, ये दोनों सदृश हैं। इस प्रकार जघन्य बन्धककाल यस्थित होने तक क्रमसे बम्धककालके समयोंकी हानि करना चाहिये। यक्षां सबसे अन्तिम विकल्प कहते हैं। यथा- जघर धन्धककाल और उसके योग्य योगसे नारफायुको बांधकर नारकियों में उत्पन्न हो दीपशिखाके प्रथम समयमें स्थित है, ऐसा लमहर कर उतारना चाहिये । पश्चात् ९ दो परमा पुओंकी हानि आदिके क्रमसे एक विकल प्रक्षेप प्रमाण अनुस्कृष्ट स्थानोंको उत्पन्न कराना चाहिये । इस प्रकार हानि करके स्थित हुआ जीव तथा एक समय कम जघन्य बन्धककालमें उसके योग्य योगले आयुको बांधकर पुनः एक समयमें प्रक्षेपम निरुद्ध योगसे आयुको बांधकर दीपशिखाके प्रथम समयमें स्थित हुआ एक अन्य सीव, ये दोनों समान हैं । इस प्रकार एक-दो तीन योगस्थान से लेकर निरुद्ध रूपयों से उतारना चाहिये जब तक कि असंख्यात योगस्थान न उतर जावे। पञ्चात् उसको वहां ही स्थापित कर इसी क्रमसे द्वितीय समयको असंख्यात योगस्थान होने तक उतारना चाहिये। इसी प्रकार इस क्रमले सम समयोंका उनके योग्य असंख्यात १ प्रतिषु 'एगसमयपक्खेऊण-' इति पाठः । १ ताप्रतिपाठोऽयम् । अ-आप्रयोः 'ततेव, काप्रती 'बाप' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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