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________________ २६६] छरखंडागमे वेयणाखंडं [१, २, ४, ५७. पाति । ते उवरिमविरलणरूवधारदेसु पक्खिविय समकरणे कीरमाणे परिहीणरूवाणमाणयणं उच्चदे। तं जहा - रूवाहियदेटिमविरलगमतद्वाणं गंतूण जदि एगरूषपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणाए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदमिच्छमोवट्टिय लद्धं उरिमविरलणाए अवणिदे एत्थतणविगलपक्खे भागहारो आगच्छदि। एदं विरले. दूण सगलपक्खेवं समखंडं कादण दिगो रूवं पडि विगलपक्खेवपमाणं होदि । एत्थ एग-दोपरमाणुआदिकमेण एगविगलपक्खेवमेत्तपदेसेसु परिहीणेसु तत्तियमेताणि व अणुक्करसट्ठागाणि उप्पज्जति । एवं परिहाइदूण विदो च अण्णगो रूवणुक्कस्सबंधगद्धाए पुवणिरुद्ध जोगेण बधिय पुणो एगसमयं पुष्वणिरुद्धजोगादो पक्खेऊणजोगहाणेण बंधिय णेरइएसुप्पन्जिय कमेण दीवसिहापढमसमर विदो च सरिसो। पुणो पुचिल्लं मोत्तूण इमं घेतूण एग दोपरमाणुआदिकमेण ऊणं करिय एगविगलपक्खेवमेत्तअणुक्कस्सहाणाणि उप्पादेदवाणि । एवमुप्पादिय हिदो च अण्णेगो सव्वसमएसु णिरुद्धजोगेहि बेव पंधिय एगसमयं दुपक्खेऊणमओगट्ठाणेण पंधिय णेरइएसुप्पज्जिय दीवसिहापढमसमए द्विदो च सरिसो। एवं परिहाणिं कादण णेदव्यं जाय एगसमएण परिणदजोगहाणपक्खेवभागहारम्मि जेत्तिया विगलपक्खेवा अत्थि तेत्तियमेत्ता परिहीणा ति । तेसिं च मिलाकर समीकरण करनेपर हीन रूपोंक लाने की विधि कहते है । यथा- एक अधिक अधस्तन बिरलन राशि मात्र स्थान जाकर यदि एक अंककी हानि प्राप्त होती है तो उरिम विरलनमें क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार प्रमाण राशिसे फलगुणित इच्छा राशिको अपवर्तित करनेपर जो प्राप्त हो उसे उपरिम विरलनमें से कम करनेपर यहांक विकल प्रक्षेपका भागहार आता है। इसका विरलन करके सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर एक थंकके प्रति विकल प्रक्षेपका प्रमाण होता है। यहां एक-दो परमाणु आदिके क्रमसे एक विकल प्रक्षेप में हीन होनेपर उतने मात्र ही अनुत्कृष्ट स्थान उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार हानि करके स्थित हुआ तथा एक कम उत्कृष्ट वन्धककालमें पूर्व निरुद्ध योगसे आयु बांधकर पुनः एक समय में पूर्व निरुद्ध योगले प्रक्षेप कम योगस्थानसे आयु बांधकर नारकियों में उत्पन्न होकर क्रमसे दीपशिखाके प्रथम समयमें स्थित हुआ एक अन्य जीय, ये दोनों सहरा हैं। पश्चात् पूर्वोक्त जीवको छोड़कर और इसको ग्रहण कर एकदा परमाणु बादिके क्रमसे हीन करके एक विकल प्रक्षेप प्रमाण अनुत्कृष्ट स्थानों को उत्पन्न कराना चाहिये । इस प्रकार उत्पन्न कराकर स्थित हुआ जीव तथा सब समयोंमें नेरुद्ध योगोंसे ही आशु बांधकर एक समयमें दो प्रक्षेपोंसे हीन योगस्थानसे आयु बांधकर नारकियों में उत्पन्न होकर दीपशिखाके प्रथम समयमें स्थित हुआ एक अन्य जीव, ये दोनों सदृश हैं। इस प्रकार हानि करके एक समयले परिणत योगस्थान प्रक्षेपभागहारम जिसने विकल प्रक्षेप हैं उतने मात्रकी हानि होने तक ले जाना चाहिये। उनकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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