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________________ १६४] खंडागमै वैयणाखंड [४, २, ५, ५८. पोदारदव्वा । एवमोदारिदे जहण्णजोगेण जहण्णबंधगद्धाए च णिरयाउअं पंधिय णेरइएसुप्पज्जिय दीवसिहापढमसमए हिदस्स अणुक्कस्सजहण्णपदेसट्टाणं होदि जावए हरं ताव मोदिण्णो' त्ति भणिदं होदि। एत्थ अणुक्कस्सजहण्णपदेसहाणं उक्कस्सपदेसट्ठाणम्मि सोहिदे सुझसेमम्मि जेत्तिया परमाणू अस्थि तेत्तियमेत्ताणि अणुक्कस्सपदेसट्ठाणाणि । ते च सव्ये एगं फदर्य, जिरंतरुप्पत्तीदो । एत्थ जीवसमुदाहारो गाणावरणस्सेव वत्तव्यो । एवमुक्कस्साणुक्कस्ससामित्तं सगंतोखित्तसंखाहाणजीवसमुदाहारं समत्तं ।। सामिचेण जहण्णपदे णाणावरणीयवेयणा दबदो जहणिया कस्स ? ॥४८॥ एदमासंकासुत्त । एत्थ एगसंजोगादिकमेण पंपणारस आसंकियवियप्पा उप्पादेदवा। उक्कस्सपदपडिसेहह जहण्णपदग्गहणं । णाणावरणीयणिदेसो सेसकम्मपडिसेहफलो । दवमिसो खेत्तादिपडिसहफलो । जो जीवो सुहुमणिगोदजीवेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणियं कम्मढिदिमच्छिदो ॥४९॥ योगस्थान होने तक उतारना चाहिये । इस प्रकार उतारने पर जघन्य योग और जघन्य बन्धककालसे नारकायुको बांधकर नारकियों में उत्पन्न हो दीपशिखाके प्रथम समयमें स्थित जीवके अनुस्कृष्ट जघन्य प्रदेशस्थान होता है। यह स्थान जितने दूर जाकर प्राप्त होता है उतना उतरा, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहां उत्कृष्ट प्रदेशस्थानमैसे मनुत्कृष्ट जघन्य प्रदेशस्थानको घटानेपर जो शेष रहे उससे जितने परमाणु हैं उतने मात्र अनुत्कृष्ट प्रदेशस्थान हैं। वे सब एक स्पर्द्धक हैं, क्योंकि वे निरन्तरक्रमसे उत्पन्न होते हैं। यहांपर जीवसमुदाहार ज्ञानावरणके समान कहना चाहिये। इस प्रकार अपने भीतर संख्यास्थान और जीवसमुदाहारको रखनेवाला उत्कृष्टानुत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ। ___स्वामित्वसे जघन्य पदमें द्रव्यकी अपेक्षा ज्ञानावरणकी जघन्य वेदना किसके ॥४८॥ यह भाशंकासूत्र है। यहां एक संयोग आदिके क्रमले पन्द्रह आशंकाधिकल्पोंको उत्पन कराना चाहिये। उत्कृष्ट पदका प्रतिषेध करने के लिये जघन्य पदका ग्रहण किया है। 'शानावरणीय' इस पदके निर्देशका फल शेष कर्मों का प्रतिषेध करना है। 'द्रव्य'इस पदके निर्देशका फल क्षेत्रादिका प्रतिषेध करना है। जो जीव सूक्ष्म निगोदजीवोंमें पल्योपमका असंख्यातवां भाग कम कर्मस्थिति प्रमाण काल तक रहा है॥४९॥ १ अ-आ-काप्रति ' जावए र ताव पविण्णो', तापतौ 'जाव एतदर ताव ए (ओ) दिगो' इति पारः । २ अ-आप्रत्योः ‘सगंतोखेत्तसंखाहाण', तापतौ सगंतोक्खेत्तसंखाए हाण-' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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