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४, २, ४, १७४.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया ते कस्स ? सगजीविदतिभागे वट्टमाणस्स । ते दो वि केवचिरं कालादो होंति ? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण चत्तारि-बेसमया। तदुवीर बीइंदियादिसणिण त्ति णिव्वत्तिअपज्जत्ताणं जहण्णुक्कस्सएगंताणुवाड्डिजोगा- जहण्णओ बिदियसमयतब्भवत्थस्स, उक्कस्सओ चरिमसमयअपज्जत्तयस्स । जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । तदुवरि तेसिं चेव णिव्वत्तिअपज्जत्ताणं जहण्णपरिणामजोगा। सो कस्स ? सरीरपज्जत्तीए पज्जत्तयदपढमसमयप्पहुडि उवरि वट्टमाणस्स होदि । सो केवचिरं कालादो होदि ? जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण चत्तारिसमया । तदुवरि तेसिं चेव जहाकमेण उक्कस्सपरिणामजोगट्ठाणाणि । सो कस्स १ परंपरपज्जत्तीए पज्जत्तयदस्य । सो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण बेसमया । एवं जहण्णुक्कस्सवोणाए सव्यपरत्थाणप्पाबहुगं समत्तं ।
पदेसअप्पाबहुए त्ति जहा जोगअप्पाबहुगं णीदं तधा णेदव्यं । णवरि पदेसा अप्पाए त्ति भाणिदव्वं ॥ १७४ ॥
एदस्सत्थो वुच्चदे-- जहा जोगस्स सत्थाण-परत्थाण-सव्वपरत्थाणभेदेण जहण्णु
अपने जीवितके तृतीय भागमें वर्तमान जीवके होते हैं । वे दोनों ही कितने काल होते हैं ? वे जघन्यसे एक समय और उत्कर्षले क्रमशः चार व दो समय होते हैं।
उसके आगे द्वीन्द्रियको आदि लेकर संज्ञी तक निर्वृत्त्यपर्याप्तोंके जघन्य व उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोग होते हैं। इनमें जघन्य तो द्वितीय समय तद्भवस्थके और उत्कृष्ट चरमसमयवर्ती अपर्याप्तके होता है । इनका काल जघन्य व उत्कर्षसे एक समय है।
__ इसके आगे उन्हीं नित्यपर्याप्तोंके जघन्य परिणामयोग होते हैं। वह किसके होता है ? वह शरीरपर्याप्तिसे पर्याप्त होने के प्रथम समयसे लेकर आगेके कालमें रहनेवाले जीवके होता है। वह कितने काल होता है ? वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे चार समय होता है।
___ इसके आगे उन्हीं के यथाक्रमसे उत्कृष्ट परिणामयोगस्थान होते हैं । वह किसके होता है ? वह परम्परापर्याप्तिले पर्याप्त हुए जीवके होता है। वह कितने काल होता है । वह जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय होता है । इस प्रकार जघन्योत्कृष्ट वीणा सर्वपरस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ।
. जिस प्रकार योगअल्पबहुत्वकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार प्रदेशअल्पबहुत्वकी प्ररूपणा करना चाहिये । विशेष इतना है कि योगके स्थानमें यहां 'प्रदेश' ऐसा कहना चाहिये ॥ १७४॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- जिस प्रकार योग अर्थात् स्वस्थान, परस्थान और
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