________________
४, २, ४, १७५ ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया
[ ४३५
जं तं संकोच - विकोचणप्पयमब्भंतर सच्चित्तद्वाणं तं सव्वेसिं सजोगंजीवाणं जीवदव्वं । जं तं तविहीणमन्तरं सच्चित्तद्वाणं तं केवलणाण- दंसणहराणं अमेक्खट्ठिदिबंध परिणयाणं सिद्धाणं अजोगिकेवलीणं वा जीवदव्वं । कथं जीवदव्वस्स जीवदन्वमभिण्णद्वाणं होदि १ ण, सदों वदिरित्तदव्वाणमण्णदव्वट्ठाण हे दुत्ताभावादो' सगतिको डिपरिणामभेदणाभेदत्तणेण सव्वदव्वाणमवट्ठाणुवलंभादो । जं तमचित्तदव्वद्वाणं तं दुविहं रूवि-यचित्तदव्वट्ठाणमरूवि-यचित्तदव्वद्वाणं चेदि । जं तं रूविअचित्तदन्वद्वाणं तं दुविहं अनंतर बाहिरं चेदि । जं तमब्भंतरं [तं] दुविहं जहवुत्ति- अजहबुत्तियं वेदि । जं तं जहवुत्तिअ मंतरद्वाणं तं किण्ह-णील रुहिर-हालिद्द-सुक्किल-सुरहि-दुरद्दिगंध-तित्त- कडुअ- कसायंबिल -महुर- ण्ड्द्धि-ल्हुक्खसीदुसुणादिभेदेणं अणेयविहं । जं तमजहवुत्तिरूविअचित्तट्ठाणं तं पोग्गलमुति-वण्ण-गंध-रसफास - अणुवजोगत्तादिभेदेण अणेयविहं । जं तं बाहिररूविअचित्तदव्वद्वाणं तमेगामासपदेसादिभेदेण असंखेज्जवियप्पं ।
संकोच - विकोचात्मक अभ्यन्तर सचित्तस्थान है वह योग युक्त सब जीवोंका जीवद्रव्य है । जो तविहीन अभ्यन्तर सचित्तस्थान है वह केवलज्ञान व केवलदर्शनको धारण करनेवाले एवं मोक्ष व स्थितिबन्ध से अपरिणत ऐसे सिद्धौका अथवा अयोग केवलियोंका जीवद्रव्य है ।
शंका - जीवद्रव्यका जीवद्रव्य अभिन्न स्थान कैसे हो सकता है ?
समाधान
नहीं, क्योंकि, अपने से भिन्न द्रव्योंके अन्य द्रव्यस्थानका हेतुश्व न होने से अपने त्रिकोटि ( उत्पाद, व्यय व धन्य ) स्वरूप परिणाम के कथंचित् भेदाभेद रूप से सब द्रव्योंका अवस्थान पाया जाता है ।
जो अचित्त द्रव्यस्थान है वह दो प्रकार है- रूपी अचितव्यस्थान और अरूपी अचित्तद्रव्यस्थान । इनमें जो रूपी अचित्तद्रव्यस्थान है वह दो प्रकार हैअभ्यन्तर और बाह्य । जो अभ्यन्तर रूपी अचित्तद्रव्यस्थान है वह दो प्रकार हैजहद्वृत्ति और अजहद्वृत्तिक । जो जहदूद्वृत्तिक अभ्यन्तर रूपी अचित्तद्रव्यस्थान है वह कृष्ण, नील, रुधिर, हारिद्र, 'शुक्ल, सुरभिगन्ध, दुरभिगन्ध, तिक्त, कटुक, कषाय, आम्ल, मधुर, स्निग्ध, रुक्ष, शीत व उष्ण आदिके भेदसे अनेक प्रकार है । जो अजहद्वृत्तिक अभ्यन्तर रूपी अचित्त द्रव्यस्थान है वह पुद्गल का मूर्त्तित्व, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श व उपयोगहीनता आदि के भेदले अनेक प्रकार है । जो बाह्य रूपी अचित्तद्रव्यस्थान है वह एक आकाशप्रदेश आदि के भेदले असंख्यात भेद रूप है ।
१ अ-आ-काप्रतिषु 'संजोग' इति पाठः । २ अ आ-काप्रतिषु 'परिणमार्ग', ताम्रता 'परिणामाण' इति पाठः । ३ अ-आ-काप्रतिषु ' जीववध्वं वध्वं कथं ', तामतौ ' जीवदव्वं [ दव्वं ] | कवं (र्ध ) ' इति पाठः । ४ आ. काप्रायोः 'साहो' इति पाठः । ५ ताप्रसौ ' मण्णादुत्ताभाषादो' इति पाठः । ६ अ आ-काप्रति 'सीधुणादिभेदेण' इति पाठः ।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org