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________________ ४ २, ४, ३३.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं [२१५ क्कस्सपदेसट्ठाणाणं गुणिदकम्मंसिओ सामी, अविणद्वगुणिदकिरियाए आगयाण पि ओकड्डुक्कड्डणवसेण एगसमयपबद्धमेत्तपरमाणूणं वड्डि-हाणिदसणादे।। गुणिदकम्मंसियम्मि एदेहितो अहियाणि हाणाणि किण्ण होति ? ण, गुणिदकम्मंसिए उक्कस्सेण एगो चेव समयपबद्धो वड्ढदि हायदि त्ति आइरियपरंपरागयउवएसादो। एदम्हादो गुणिदकम्मंसियअणुक्कस्सजहण्णपदेसट्ठाणादो गुणिद-घोलमाणउकिस्सपदेसाणं विसेसाहियं होदि । होतं पि असंखेज्जदिभागुत्तरं । एदं मोत्तूण गुणिदकम्मंसियजहण्णपदेसहाणपमाणं गुणिदघोलमाणअणुक्कस्सपदेसहाणं घेत्तूर्ण परमाणुहीण-दुपरमाणुहीणादिसरूवेण ऊणं करिय णेदव्वं जाव गुणिद-घोलमाणउक्कपदसट्ठाणादो असंखज्जगुणहीणं तस्सव जहण्णपदेसवाणं ति । एदेसिमप्पणो गुणिदकम्मंसियजहण्णपदेसट्ठाणसमाणगुणिद-घोलमाणपदेसट्ठाणादो अणंतभागहीणमसंखज्जभागहीण-संखेज्जभागहीण-संखेज्जगुणहीण - असंखज्जगुणहीणसरूवेण परिहीणढाणाणं गुणिदघोलमाणो सामी । कुदो ? गुणिद-घोलमाणट्ठाणाणं पंचवड्डि-पंचहाणीओ होति त्ति गुरूवएसादो । पुणो एदम्हादो गुणिद-घोलमाणजहण्ण-अणुक्कस्स इन अनुत्कृष्ट प्रदेशस्थानोंका गुणितकौशिक जीव स्वामी होता है, क्योंकि, विनाशको नहीं प्राप्त हुई गुणित क्रियासे जो कर्म आते हैं उनमें अपकर्षण और उत्कर्षणके वश एक समयप्रबद्ध मात्र परमाणुओंकी वृद्धि व हानि देखी जाती है। शंका- गुणितकौशिक जीवके इनसे अधिक स्थान क्यों नहीं होते ? समाधान - नहीं, क्योंकि, गुणितकौशिक अवस्थामें उत्कृष्ट रूपसे एक समयप्रबद्ध ही बढ़ता और घटता है, ऐसा आचार्यपरम्परागत उपदेश है। गुणितकर्माशिकके इस अनुत्कृष्ट जघन्य प्रदेशस्थानसे गुणितघोलमानका उत्कृष्ट प्रदेशस्थान विशेष अधिक है। विशेष अधिक होकर भी असंख्यातवें भागसे अधिक होता है। इसको छोड़कर और गुणितकर्माशिकके जघन्य प्रदेशस्थानके बराबर गुणितघोलमान अनुत्कृष्ट प्रदेशस्थानको ग्रहण करके एक परमाणु हीन दो परमाणु हीन इत्यादि रूपसे कम करके जब तक गुणितघोलमानके उत्कृष्ट प्रदेशस्थानसे असंख्यातगुणा हीन उसका ही जघन्य प्रदेशस्थान नहीं प्राप्त होता तब तक ले जाना चाहिये । अपने इन गुणितकर्माशिक सम्बन्धी जघन्य प्रदेशस्थानके समान गुणितघोलमानके प्रदेशस्थानसे अनन्त भाग हीन, असंख्यात भाग हीन, संख्यात भाग हीन, संख्यातगुणे हीन व असंख्यातगुणे हीन स्वरूपसे परिहीन स्थानोंका गुणितघोल न स्वामी है। क्योंकि, गुणितघोलमान सम्बन्धी स्थानों के पांच वृद्धियां व पांच हानियां होती हैं, ऐसा गुरुका उपदेश है। पुनः गुणितघोलमानके इस जघन्य १ मप्रता ‘घेत्तूण च ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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