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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, १८३. कमहाणीहि दिसेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तवग्गणाहि एग फद्दयं होदि त्ति वक्खाणादो । अहवा ' अवयवेषु प्रवृत्ताः शब्दाः समुदायेष्वपि वर्त्तन्ते ' इति न्यायात् स्पर्द्धकलक्षणोपलक्षितत्वात्प्राप्तस्पर्द्धकव्यपदेशवर्ग पंक्तितोऽभेदात्समुदायस्यापि स्पर्द्धकत्वं न विघटते । अहवा पंचवण्णसमणियस्स कागस्स जहा कसणं गुणं पडुच्च कसणो कागो त्ति वुच्चदे तहा फद्दयं वग्गणाविभागपडिच्छेदे पडुच्च कमवड्डिविरद्दिदं पि वग्गाविभागपडिच्छेदे अस्सिदूण कमवड्डिसमणिमिदि वुच्चदे |
एवमसंखेज्जाणि फहयाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि ॥ संखेज्जेहि फद्दएहि जोगट्ठाणं ण होदि, असंखेज्जेहि चेव फदएहि होदित्ति जाणावण असंखेज्जणिद्देसो कद| | सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि त्ति वयणेण पलिदोवमसागरोवमादीनं पडिसेहो कदो | सव्वेसिं फहयाणं वग्गणाओ सरिसाओ, अण्णहा फद्दयंतराणं सरिसत्ताणुववत्तदो । एवं फद्दयपरूवणा समत्ता ।
हानि स्वरूपसे स्थित श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र वर्गणाओंके द्वारा एक स्पर्धक होता है, ऐसा व्याख्यान है । अथवा, अवयवों में प्रवृत्त हुए शब्द समुदायों में भी प्रवृत्त होते हैं, इस न्याय से स्पर्धकलक्षणसे उपलक्षित होने के करण स्पर्धक संज्ञाको प्राप्त हुई वर्गपंक्तिले अभिन्न होनेके कारण समुदायके भी स्पर्धकपना नष्ट नहीं होता । अथवा, जिस प्रकार पांच वर्ण युक्त काकको कृष्ण गुणकी अपेक्षा करके 'कृष्ण काक ' ऐसा कहा जाता है, उसी प्रकार वर्गणाओंके अविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा क्रमवृद्धि से रहित भी स्पर्धक वर्गके अविभागप्रतिच्छेदों का आश्रय करके क्रमवृद्धि युक्त है, अतः उसे स्पर्धक कहा जाता है |
इस प्रकार एक योगस्थानमें श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात स्पर्धक होते हैं ॥ १८३ ॥
संख्यात स्पर्धकोंसे योगस्थान नहीं होता है, किन्तु असंख्यात स्पर्धकोंसे ही होता है; इस बातके ज्ञापनार्थ असंख्यात पदका निर्देश किया है । ' श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र ' इस वचनसे पल्योपम व सागरोपम आदिकों का निषेध किया गया है । सब स्पर्धकोंकी वर्गणायें सदृश होती हैं, क्योंकि, इसके विना स्पर्धक के अन्तरोंकी समानता घटित नहीं होती। इस प्रकार स्पर्धकप्ररूपणा समाप्त हुई ।
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१ अ-का-ताप्रतिषु' - लक्षितत्वतस्प्राप्त', आप्रतौ ' लक्षितत्वात्तत्प्राप्त- ' इति पाठः २ प्रतिषु पंक्तितो मेदात् ' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'सणिदमिदि ' पाठः । ४ अ आ-काप्रतिषु ' संखेब्जाहि ' इति पाठः ।
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