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________________ ४, २, ४, १८४.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया [४५५ अंतरपरूवणदाए एक्केक्कस्स फद्दयस्स केवडियमंतरं ? असंखेज्जा लोगा अंतरं' ॥ १८४ ॥ किमट्ठमंतरपरूवणा कीरदे ? पढमफदयस्सुवरि पढमफदए चेव वड्डिदे बिदियफयं होदि त्ति जाणावणहूँ । पढमफद्दओ चेव वड्ढदि त्ति कधं णव्वदे ? पढमफद्दयपढमवग्गणाए एगवग्गादो बिदियफद्दयपढमवग्गणाए एगवग्गो दुगुणो चेव होदि त्ति गुरूवएसादो । पढम-बिदियफयाणं विक्खंभा सरिसा । बिदियफद्दयआयामादो पुण पढमफद्दयआयामो विसेसाहिओ। तम्हा पढमफद्दयस्सुवरि पढमफद्दए चेव वड्डिदे बिदियफद्दयं होदि त्ति ण घडदे । सरिसधणियं मोत्तूण जदि वि एगोली चव फयमिदि घेप्पदि तो वि पढमफद्दयस्सुवरि पढमफदए चेव वड्डिदे बिदियफद्दयं ण उप्पज्जदि, कमवड्डीए अभावण फद्दयाभावप्पसंगादो त्ति ? ण एस दोसो, बिदियफयाम्म जेत्तिया वग्गा अन्तरप्ररूपणाके अनुसार एक एक स्पर्धकका कितना अन्तर होता है ? असंख्यात लोक प्रमाण अन्तर होता है ॥ १८४ ॥ शंका- अन्तरप्ररूपणा किसलिये की जाती है ? समाधान-प्रथम स्पर्धकके ऊपर प्रथम स्पर्धकके ही बढ़ जानेपर द्वितीय स्पर्धक होता है, इस बात के ज्ञापनार्थ अन्तरप्ररूपणा की जाती है। शंका-प्रथम स्पर्धकके ऊपर प्रथम स्पर्धक ही बढ़ता है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणा सम्बन्धी एक वर्गसे द्वितीय स्पर्धक सम्बन्धी प्रथम वर्गणाका एक वर्ग दुगुणा ही होता है, इस प्रकारके गुरुके उपदेशसे वहा जाना जाता है। शंका-प्रथम और द्वितीय स्पर्धकका विष्कम्भ सदृश है। परन्तु द्वितीय स्पर्धकके आयामसे प्रथम स्पर्धकका आयाम विशेष अधिक है । इसीलिये प्रथम स्पर्धकके ऊपर प्रथम स्पर्धकके ही बढ़ जानेपर द्वितीय स्पर्धक होता है, यह घटित नहीं होता । समान धनवालेको छोड़कर यद्यपि एक वर्गपंक्ति ही स्पर्धक है, ऐसा ग्रहण किया जाता है तो भी प्रथम स्पर्धकके ऊपर प्रथम स्पर्धकके ही बढ़नेपर द्वितीय स्पर्धक नहीं उत्पन्न होता; क्योंकि, वैसा होनेपर क्रमवृद्धिका अभाव होनेसे स्पर्धकके अभावका प्रसंग आता है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, द्वितीय स्पर्धककी सब वर्गणाओं. १ सेटिअसंखियमिचा फडगमेत्तो अणंतरा नस्थि । जाव असंखा लोगा तो बीयाई य पुव्वसमा ॥ क. प्र.१,५. ..-आ-काप्रतिषु वडीए', तापतौ ' वदिए ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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