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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, १८५. सव्वासु वग्गणासु अत्थि तेत्तियमेत्तवग्गेसु पढमफद्दयवग्गपमाणेसु ' एकदेशविकृतावनन्यवत्' इति' न्यायात् दव्वट्ठियणएण वा पढमफद्दयसणिदेसु एत्तियमेतेसु चेव पढमफद्दय आदिवग्गे पुव्विल्लणारण लद्धपढमफद्दयववएसेसु पक्खित्तेसु चिदियफद्दयसमुप्पत्तीदो । असंखेज्जा लोगा फद्दयंतरमिदि वुत्तं, तत्थ जदि पढमफद्दय चरिमवगणाए बिदियफद्दयआदिवग्गणाए च अंतरं फदयंतरमिदि घेप्पदि तो पढमफद्दय आदिवग्गणाए एगत्रग्गाविभागपडिच्छेदा फद्दयवग्गणसलागूणा अंतरं होदि । अह पढमफद्दयचरिमवग्गस्स बिदियफद्दय चरिमवग्गस्स च अंतरं जदि फद्दयंतरमिदि घेप्पदि तो पढमफद्दय आदिवग्गाविभागपडिच्छेदा रूवूणा फद्दयंतरं होदि । एवमसंखेज्जा लोगांतरपमाणं ।
एवदियमंतरं ॥ १८५ ॥
एत्थ चैव सद्दो अज्झाहारयव्वो, एवदियं चेव अंतरं होदि ति । तेण सिद्धं सव्वफद्दयंतराणं सरिसत्तं । एत्थ दव्वट्ठियणयावलंबणाए एगवग्गस्स सरिसत्तणेण सगंतो -
में जितने वर्ग हैं प्रथम स्पर्धकके
वर्गों के
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बराबर उतने मात्र वर्गों की एक देश विकृति होनेपर भी वह अनन्य ( अभिन्न ) के समान ही रहता है " इस न्याय से अथवा द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा ' प्रथम स्पर्धक संज्ञा है, उनमें पूर्वोक्त न्याय से, C प्रथम स्पर्धक संज्ञाको प्राप्त हुए इतने मात्र ही प्रथम स्पर्धक सम्बन्धी आदि वर्गों के मिलाने पर द्वितीय स्पर्धक उत्पन्न होता है ।
स्पर्धकोंका अन्तर असंख्यात लोक मात्र है, ऐसा सूत्र में कहा गया है । वहां यदि प्रथम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणा और द्वितीय स्पर्धक की प्रथम वर्गणा अन्तरको स्पर्धकों का अन्तर ग्रहण करते हैं तो स्पर्धककी जितनी वर्गणाशालाकायें हैं उतने से कम प्रथम स्पर्धक सम्बन्धी प्रथम वर्गणाके एक वर्ग सम्धन्धी अविभागप्रतिच्छेद प्रमाण अन्तर होता है । अथवा, प्रथम स्पर्धक के अन्तिम वर्ग और द्वितीय स्पर्धक के अन्तिम वर्ग के अन्तरको यदि स्पर्धकोंका अन्तर ग्रहण किया जाता है तो एक कम प्रथम स्पर्धक सम्बन्धी प्रथम वर्गके अविभागप्रतिच्छेद मात्र स्पर्धकोंका अन्तर होता है । इस प्रकार अन्तरका प्रमाण असंख्यात लोक है ।
स्पर्धकोंके बीच इतना अन्तर होता है ।। १८५ ॥
यहां 'चेव ' शब्दका अध्याहार करना चाहिये, इसलिये ' इतना ही अन्तर होता है ' ऐसा सूत्रका अर्थ हो जाता है । इसीलिये समस्त स्पर्धकोंके अन्तरोंके समानता सिद्ध होती है । यहां द्रव्यार्थिकनयके अवलम्बन से समानता होनेके कारण सदृश
' आमतौ ' विकृर्तवनन्यमिति', ताप्रतौ ' विकृतमनन्यवदिति ' इति पाठः ।
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