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________________ ११.] छक्खंडागमे वैयणाखंड [१, २, ४, ७६. तिचरिमसमयखीणकसाओ जादो । एदस्स दव्वं पुज्वदव्वेण सरिसं होदि । एवमेगेगगुणसेडिगोवुच्छं वड्डाविय ओदारेदव्वं जाव खीणकसायद्धा सेसा जत्तिया अस्थि तत्तियमेत्तं मोत्तूण चरिमफालिं पादेदूण अच्छिदो ति। एवं वड्डिदणच्छिदे पुणो एदस्सुवरि परमागुत्तरादिकमेण तदणंतरहेट्ठिमगोवुच्छा वड्ढावेदव्वा । तदो एदेण जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण चरिमफालिं तिस्से उदयगदगुणसेडिगोउच्छं च धरेदूण ट्ठिदखीणकसायस्स दव्वं सरिसं होदि । तदो पुबिल्लखवगं मोत्तूण चरिमफालिखवगं' घेतूण वड्डावेदव्वं जाव दुचरिमफालीए हेट्ठिमउदयगदगुणसेडिगोउच्छमेत्तं वड्ढिदे ति । एदेण दव्वेण खविदकम्मसियलक्खणणागंतूण दुचरिमफालीए सह उदयगदगोउच्छं धरेदूण विददव्वं सरिसं होदि । एवमेगेगगुणसेडिगोवुच्छं वड्ढावदण ओदारेदव्वं जाव सुहुमसांपराइयखवगचरिमसमओ त्ति । संपधि एत्थ वड्ढाविज्जमाणे उवरिमसमयम्मि बद्धदव्वस्स हेट्ठिमसमयम्मि अभावादो णवकबंधेगूणसुहुमखवगदुचरिमगुणसेडिगोवुच्छमेतं वड्ढावेदव्वं । पुणो एदेण सुहुमखवगदुचरिमगुणसेडिगोउच्छं धरेदण दिदव्वं सरिसं होदि। एवं णवकपंधेणूणसुहुमगुणसेडिगोवुच्छा वड्ढाविय' ओदारेदव्वं जाव चरिमसमयअणियट्टि त्ति । पुणो णवकबंधेणूणअणियट्टिदुचरिम इसका द्रव्य पहिले जीवके द्रव्यके सदृश होता है। इस प्रकार एक एक गुणश्रेणिगोपच्छा बढाकर जितना क्षीणकषायकाल शेष है उतने मात्रको छोड़कर अन्तिम फालिको नष्ट कर स्थित होने तक उतारना चाहिये । इस प्रकार बढ़कर स्थित होनेपर फिर इसके ऊपर एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे उससे अव्यवहित अधस्तन गोपुष्छा बढ़ाना चाहिये । तत्पश्चात् इसके साथ जघन्य स्वामित्वके विधानसे आकर मन्तिम फालि और उसकी उदयप्राप्त गुणश्रेणिगोपुच्छाको लेकर स्थित हुए क्षीणकषायका द्रव्य सदृश होता है । पश्चात् पूर्वोक्त क्षपकको छोड़कर अन्तिम फालिवाले क्षपकको ग्रहण कर द्विचरम फालिकी अधस्तन उदयप्राप्त गुणश्रेणिगोपुच्छा मात्र वृद्धि होने तक बढ़ाना चाहिये। इस द्रव्यके साथ क्षपितकौशिक स्वरूपसे आकर विचरम फालिके साथ उदयप्राप्त गोपुच्छाको लेकर स्थित जीवका द्रव्य सदृश है। इस प्रकार एक एक गुणश्रेणिगोपुच्छाको बढ़ाकर सूक्ष्मसाम्प्रगयिक क्षपकके अन्तिम समय तक उतारना चाहिये। अब यहां बढ़ाते समय उपरिम समय में बांधे हुए द्रव्यका अधस्तन समयमें अभाव होनेके कारण नवक बन्धले रहित सूक्ष्मसाम्परायिककी द्विचरम गुणश्रणिगोपुच्छा मात्र बढ़ाना चाहिये । पुनः इसके साथ सुक्ष्मसाम्परायिककी द्विचरम गोपुच्छाको लेकर स्थित हुए जीवका द्रव्य सदृश होता है। इस प्रकार नवक बन्धसे रहित सूक्ष्मसाम्परायिक गुणश्रेणिगोपुच्छा बढ़ाकर चरमसमयवर्ती अनिवृत्तिकरण तक उतारना चाहिये । पश्चात् नवक बन्धसे १ अ-आ-काप्रतिषु ' चरिमफालि खवगं' पति पाठः । २ तापतौ ' वददिति' इति पाठः । ३ ममतौ गोवानिय ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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