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________________ १२२ ] छक्खंडागमे बेयणाखंड [ ४, २, ४, ३२. ति गहिदो | ६३००| । कम्मट्ठदिदीहत्तमट्ठेतालीसं | ४८ । । छ णाणागुणहाणिसलागाओ । एदेहि अद्वेतालीसम्म ट्ठदिमोवाट्टेदे लद्धमट्ठ गुणहाणी होदि | ८ || गुणहाणीए दुगुणिदाए' णिसे गभागहारो होदि | १६ | | पंचसदाणि बारसुत्तराणि पढमणिसेगो । ५१२ || णिसेगभागहारेण पढमणिसेगे भागे हिदे लद्धं बत्तीस गोवुच्छविसेसो | ३२ || एदस्सद्धं विदियगुणहाणि - गोवुच्छविसेसो | १६ | | एदस्सद्धं तदियगुणहाणिगोवुच्छविसेस | ८ ! | एवं गुणहाणिं पडि अद्धद्धेण हीयमाणो गच्छदि जाव कम्मट्ठिदिचरिमगुणहाणि त्ति । अण्णाण्णव्भत्थरासी चउसकी ६४ || एवं संदिट्ठि ठविय संपहि अवहारो वुच्चद मोहणीयस्स पढमट्ठिदिपदेसग्गेण समयपबद्धो केवचिरेण कालेन अवहिरिज्जदि ? दिवङ्गुणहाणिट्ठाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जदि । तं जहा पढमगुणहाणिपढमणिसंग ठविय गुणहाणी गुणिदे गुणहाणिमेत्तपढमणिसेगा होंति | ५१२ | ८ | | पढमणिगादा बिदिय - णिसेगो एगगोवुच्छविसेसेण परिहीणो । तदिओ दोहि, चउत्थो तीहि परिहीणो | एवं गंतूण यहां संदृष्टिमें समयप्रबद्धका प्रमाण तिरेसठ सौ ६३०० ग्रहण किया है । कर्मस्थितिकी दीर्घताका प्रमाण अड़तालीस ४८ है । नानागुणहानिशलाकायें छह हैं । इनसे ४८ समय प्रमाण कर्मस्थितिको अपवर्तित करनेपर लब्ध आठ समय प्रमाण एक गुणहानि होती है । गुणहानिको द्विगुणित करनेपर निषेकभागहारका प्रमाण १६ होता है । प्रथम निषेकका प्रमाण पांच सौ बारह ५१२ है । निषेकभागहारका प्रथम निषेकमें भाग देने पर लब्ध बत्तीस ३२ गोपुच्छविशेषका प्रमाण है । इससे आधा १६ द्वितीय गुणहानिका गोपुच्छ विशेष है । इससे आधा ८ तृतीय गुणहानिका गोपुच्छविशेष है । इस प्रकार कर्मस्थितिकी अन्तिम गुणहानि तक एक एक गुणहानि के प्रति गोपुच्छविशेष आधा आधा हीन होता हुआ चला जाता है । अन्योन्याभ्यस्त राशिका प्रमाण चौंसठ ६४ है । इस प्रकार संदृष्टिको स्थापित कर अब अवहारकालको कहते हैं - - मोहनीयका एक समयप्रबद्ध उसके प्रथम स्थितिप्रदेशाग्र के द्वारा कितने कालसे अपहृत होता है ? डेढ़ गुणहानिस्थानान्तरकालके द्वारा अपहृत होता है । यथाप्रथम गुणहानि के प्रथम निषेकको स्थापित कर गुणहानिसे अर्थात् एक गुणहानिके काल से गुणित करने पर गुणहानि प्रमाण प्रथम निषेक होते ( ५१२ × ८ = ८ प्रथम निषेक ) हैं । प्रथम निषेककी अपेक्षा द्वितीय निषेक एक गोपुच्छविशेषसे हीन है । तृतीय निषेक दो गोपुच्छविशेषोंसे और चतुर्थ निषेक तीन गोपुच्छविशेषोंसे हीन है । इस प्रकार जाकर Jain Education International १ अप्रतौ ' गुणहाणिदाए', आ-काप्रत्योः ' गुणिदाए ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' पंचमदाणि वारसुतरसदाणि ' इति पाठः । ३ कामतौ ' एवं ' इति पाठः । ४ अतौ ' कालादो ' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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