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________________ ५८६) छक्खंडागमे वेयणाखंड . [४, २, १, १९०. जहण्णफद्दयजहण्णवग्गणाए वग्गेसु समखंडं कादूण दिण्णे बिदियट्ठाणपढमफद्दयस्स जहण्णवग्गणा होदि । बिदियरासिं बिदियवग्गणजीवपदेसेहि गुणिय पडिरासिदजहण्णट्ठाणस्स विदियवग्गणवग्गाणं समखंडं कादण दिण्णे बिदियठाणस्स बिदियवग्गणमुप्पज्जदि । एदेण विहाणेण विदियट्ठाणसव्ववग्गणाओ उप्पाएदवाओ। णवरि बिदियफद्दयहिदपडिरासीओ दुगुणिय गुणेदवाओ। एवमुवरि फद्दयं पडि रूवुत्तरकमेण गुणणकिरिया कायव्वा । एवं कदे बिदियजोगट्ठाणमुप्पण्णं होदि । एत्तियाणं जोगाविभागपडिच्छेदाणं कुदो वड्डी ? अण्णेसिं जीवाणं समयं पडि ढुक्कमाणणोकम्मादो वीरियंतरायक्खओवसमादो च । तदिए जोगट्टाणे फद्दयाणि विसेसाहियाणि ॥ १९ ॥ एत्थ विसेसो पुन्विल्लपक्खेवो चेव । एदम्हि पक्खेवे बिदियजोगट्ठाणं पडिरासिय पक्खित्ते तदियजोगट्ठाणं होदि । एत्थ वि पक्खेवो पुत्वं व विरलेदूण विहंजिय सव्ववग्गणाणं दादयो । एवं विसेसाहियाणि विसेसाहियाणि जाव उक्कस्सहाणेत्ति ॥ एवमुप्पण्णुप्पण्णजोगट्ठाणं पडिरासिय अवहिदपक्खेवं पक्खिविय सेडीए असंखेज्जदिवर्गोंको समखण्ड करके देनेपर द्वितीय स्थान सम्बन्धी प्रथम स्पर्धककी जधन्य वर्गणा होती है। द्वितीय राशिको द्वितीय वर्गणाके जीवप्रदेशोंसे गुणित कर प्रतिराशिभूत जघन्य स्थान सम्बन्धी द्वितीय वर्गणाके वाको समखण्ड करके देनेपर द्वितीय स्थानकी द्वितीय वर्गणा उत्पन्न होती है। इस विधानसे द्वितीय स्थानकी सब वर्गणाओंको उत्पन्न कराना चाहिये । विशेष इतना है कि द्वितीय स्पर्धक सम्बन्धी प्रतिराशियोको दुगुणित कर गुणित करना चाहिये। इसी प्रकार आगे प्रत्येक स्पर्धकके एक-एक अधिकताके क्रमसे गुणन क्रिया करना चाहिये । इस प्रकार करनेपर द्वितीय योगस्थान उत्पन्न होता है। शंका-इतने मात्र योगाविभागप्रतिच्छेदोंकी वृद्धि किस कारणसे होती है ? समाधान- अन्य जीवोंके प्रतिसमय आनेवाले नोकर्म और वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे उक्त वृद्धि होती है।। तृतीय स्थानमें स्पर्धक विशेष अधिक होते हैं ॥ १९० ॥ यहां विशेष पूर्वोक्त प्रक्षेप ही है। इस प्रक्षेपको द्वितीय योगस्थानको प्रति. राधिकरके उसमें मिलानेपर तृतीय योगस्थान होता है । यहां भी प्रक्षेपको पहिलेके ही समान विरलित करके विभाजित कर सब वर्गणाओंको देना चाहिये। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थान तक वे उत्तरोत्तर विशेष अधिक विशेष अधिक होते इस प्रकार उत्तरोत्तर उत्पन्न हुए योगस्थानको प्रतिराशि करके उसमें अवस्थित प्रक्षेपको मिलाकर उत्तष्ट योगस्थानके उत्पन्न होने तक श्रेणिके असंख्यातवें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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