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________________ १, २, ४, १९१.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया [४८७ भागमेत्तजोगट्ठाणाणि उप्पादेदव्वाणि जाव उक्कस्सजोगट्ठाणमुप्पण्णेत्ति । एवं पक्खेवेसु अवहिदकमेण वड्डमाणेसु केत्तियाणि जोगट्ठाणाणि गंतूण एगमपुव्वफद्दयं होदि त्ति पुच्छिदे सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि जोगट्ठाणाणि गंतूणुप्पज्जदि, सादिरेयचरिमजोगफद्दयमेत्तवड्डीए विणा अपुव्वफद्दयाणुप्पत्तीदो । चरिमफदए च जोगपक्खेवा सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ता अस्थि, एगजोगपक्खेवेण चरिमफद्दए भागे हिदे सेडीए असंखेज्जदिभागुवलंभादो । तेण तप्पाओग्गसेडीए असंखेज्जदिभागमेतपक्खेवेसु वड्ढिदेसु तत्थ पुव्विल्लफद्दएहितो रूवाहियफद्दयाणं चरिमफद्दयम्मि जत्तिया जीवपदेसा अत्थि तत्तियमेत्तअणंतरहेट्ठिमफद्दयवग्गे वड्विदपक्खेवेहितो घेत्तूण उवरि जहाकमेण ठविय पुणो चरिमफद्दयजीवपदेसमेत्ते चेव जहण्णट्ठाणजहण्णवग्गे तत्तो घेतूण तत्थेव जहाकमेण पक्खिविय सेसं पुत्वं व असंखेज्जलोगेण खंडिय लद्धमप्पिदट्ठाणफद्दयवग्गणजीवपदेसेहि पुध पुध गुणिय इच्छिदवग्गणजीवपदेसाणं समखंडं कादण दिण्णे अप्पिदट्ठाणमुप्पज्जदि त्ति घेतव्वं । एत्तो पहुडि उवरि एगेगपक्खेवेसु वड्डमाणेसु फद्दयाणि अवडिदाणि चेव होदूण सेडीए असंखेज्जदिभाममेत्त भाग मात्र योगस्थानोंको उत्पन्न कराना चाहिये। शंका-इस प्रकार अवस्थितक्रमसे प्रक्षेपोंकी वृद्धि होनेपर कितने योगस्थान जाकर एक अपूर्व स्पर्धक होता है ? समाधान-ऐसी शंका होनेपर उत्तर देते हैं कि वह श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र योगस्थान जाकर उत्पन्न होता है, क्योंकि, साधिक चरम योगस्पर्धक मात्र वृद्धिके विना अपूर्व स्पर्धक उत्पन्न नहीं होता। चरम स्पर्धकमें योगप्रक्षेप श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र हैं, क्योंकि, एक योगप्रक्षेपका चरम स्पर्धकमें भाग देनेपर श्रेणिका असंख्यातवां भाग पाया जाता है। इस कारण तत्प्रायोग्य श्रेणिके असंख्यातवे भाग प्रमाण प्रक्षेपोंकी वृद्धि हो जानेपर वहां पूर्वके स्पर्धकोंकी अपेक्षा एक अधिक स्पधेकोंके अन्तिम स्पर्धकमें जितने जीवप्रदेश है उतने मात्र अनम्तर अधस्तन स्पर्धकके वौको वृद्धिप्राप्त प्रक्षेपोंमेंसे ग्रहण करके ऊपर यथाक्रमसे स्थापित कर फिर उनमेंसे चरम स्पर्धकके जीवप्रदेशोंके बराबर ही जघन्य स्थान सम्बन्धी जघन्य वौको ग्रहण करके उनमें ही यथाक्रमसे मिलाकर शेषको पहिलेके समान ही असंख्यात लोकसे खण्डित करनेपर जो लब्ध हो उसको विवक्षित स्थान सम्बन्धी स्पर्धककी वर्गणाओंके जीवप्रदेशोंसे पृथक् पृथक् गुणित करके इच्छित वर्गणा. के जीवप्रदेशको समखण्ड करके देनेपर विवक्षित स्थान उत्पन्न होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । यहांसे आगे एक एक प्रक्षेपके बढ़ने पर स्पर्धक अवस्थित ही होकर ओणिके असंख्यातवें भाग मात्र स्थान उत्पन्न होते हैं। फिर इस प्रकार अपूर्व १ अ-आ-कामतिषु वहिद' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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