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________________ २४० ] छक्खडागमे वेयणाखंड लहुँ' गहणं कदं । किमहं तस्स पडिसेहो कीरदे ? दीहकाले बहुआओ गोवुच्छाओ गलति त्ति बहुणिसेगणिज्जरपडिसेह तप्पडिसेहो कीरदे । एग दोपज्जत्तीसु समर्त्ति गदासु • पज्जता आउअबंधपाओग्गो ण होदि, किंतु सव्वाहि पत्तीहि पज्जत्तयदो चेत्र आउ अबंध- पाओग्गो होदि त्ति जाणावणङ्कं सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो त्ति उत्तं । अंत| मुहुत्तेण पुणरवि परभवियं पुव्वकोडाउअं बंधदि जलचरेसु ॥ ४१ ॥ पज्जत्तिसमाणिदसमयप्प हुडि जाव अंतेोमुहुत्तं ण गदं ताव कदलीघादं ण करेदि त्ति जाणावणङ्कुमंतोमुहुत्तगिद्देयो क़दो । किम हेट्ठा भुंजमाणांउअस्स कदलीघादो ण कीरदे ण, साभावियादो | कदलीघादेण विणा अंत मुहुत्तकालेण परभवियमाउअं किण्ण झदे ? ण, जीविदूणागदस्स आउअस्स अद्धादो अहियआबाहाए परभवियाउअस्स बंधा " [ ग्रहण किया है । - उत्कृष्ट कालका प्रतिषेध किसलिये - शंका समाधान - चूंकि दीर्घ निषेकोंकी निर्जरा हो जाती है, कालका प्रतिषेध किया गया है । काल द्वारा बहुत अतः इस बातका एक-दो पर्याप्तियोंके पूर्ण होनेपर पर्याप्त हुआ जीव आयुबन्धके योग्य नहीं होता, किन्तु सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ ही आयुबन्धके योग्य होता है; इस बातका ज्ञान करानेके लिये ' सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्तक हुआ ' ऐसा कहा है । अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा फिर भी जलचरों में परभव सम्बन्धी पूर्वकोटि प्रमाण आयुको बांधता है ॥ ४१ ॥ पर्याप्तियों को पूर्ण कर चुकने के समय से लेकर जब तक अन्तर्मुहूर्त नहीं बीतता है तब तक कदलीघात नहीं करता, इस बातका ज्ञान कराने के लिये अन्तर्मुहूर्त ' पदका निर्देश किया है । शंका- इसके नीचे भुज्यमान आयुका कदलीघात क्यों नहीं करता ? समाधान - नहीं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । शंका -- कदलीघात के विना अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा परमचिक आयु क्यों नहीं बांधी जाती ? समाधान - नहीं, क्योंकि, जीवित रहकर जो आयु व्यतीत हुई है उसकी माधसे अधिक आवाधाके रहते हुए परभविक आयुका बन्ध नहीं होता । " २, ४, ४१. Jain Education International किया जाता है ? गोकुच्छायें गल जानेसे बहुत प्रतिषेध करनेके लिये उत्कृष्ट १ अ आ-काप्रतिषु ' पुषाहि ' इति पाठः । २ अन्तर्मुहूर्तेन पुनरपि परमत्रसम्बन्धि पूर्व कोटवायुष्यं जलचरेषु पति मो. नौ. ( जी. प्र. ) २५८. ३ अ आ-काप्रतिषु ' मंजमाणाउअस्स ' इति पाठः .. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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