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________________ ४, २, ४, ४१. 1 वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं [ २४१ भावादो | जीविदूणागदआउगस्स अद्धमेत्ताए तत्तो ऊणाए वि आबाधाए आउअं बंदि अहियाए ण बंदि ति कधं णव्वदे ! पुव्वकोडितिभागमेत्ता चेव आउअस्स उक्कस्साबाहा होदिति कालविहाणसुत्तादो' । एत्थतणपढमागरिसकालादो पुव्वकोडितिभागमाबाईं काऊण आउअं बंधमाणस्स पढमागरिसकालो बहुमो ति तत्थ परभवियाउअबंधो किण्ण कीरदे ? ण, पढमागरिसकालादो पुव्वकोडितिभागपढमागरिसकालस्स संखेज्जदिभागाहियतादो | ण च संखेज्जदिभागलाई पडुच्च भुंजमाणाउअस्से बे-तिभागे गालिय तिभागावसेसे आउअबंधं काउं जुत्तं, फलाभावा दो । तदो एत्थेव बंधो कायव्वा । एत्थ जीविदूणागदअर्द्ध' मोचूण दिवस-वासादिआबाहं काऊण परभवियाउए बज्झमाणे पयडि - विगिदिगोवुच्छाओ सण्हा होतॄण गलति त्ति दीहाबाहाए लाहे * संते वि जीविदर्द्ध' चैव आबाहूं शंका जीवित रहकर जो आयु व्यतीत हुई है उसकी आधी या इससे भी कम आबाधा के रहनेपर आयु बंधती है, अधिकमें नहीं बंधती; यह किल प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान -- 'पूर्वकोटिके तृतीय भाग मात्र ही आयुकी उत्कृष्ट भाषाधा होती है " इस कालविधानसूत्र से जाना जाता है । विशेषार्थ — आशय यह है कि एक पर्याय में जितनी आयु भोगी जाती है उसका त्रिभाग या इससे भी कम शेष रहनेपर आयु कर्मका बन्ध होता है, इसके पहले नहीं । यही कारण है कि प्रकृत में पहले कदलीघात कराया और पश्चात् आयु कर्मका बन्ध कराया । शंका- यहां के प्रथम अपकर्ष काल की अपेक्षा पूर्वकोटित्रिभागको आबाधा करके आयुको बांधनेवाले जीवके जो प्रथम अपकर्षकाल प्राप्त होता है वह बहुत है, अतः उसमें परभविक आयुका बन्ध क्यों नहीं कराया जाता ? समाधान -- नहीं, क्योंकि, यहां के प्रथम अपकर्षकालसे पूर्वकोटित्रिभाग के समय प्राप्त हुआ प्रथम अपकर्षकाल संख्यातवें भाग अधिक है । परन्तु संख्यातवें भाग मात्र लाभको ध्यान में रखकर भुज्यमान आयुके दो त्रिभागोंको गलाकर एक त्रिभाग के अवशेष रहनेपर आयुका बन्ध कराना युक्त नहीं है, क्योंकि, उसका कोई फल नहीं है । इसलिये यहां ही बन्ध कराना चाहिये । 66 - यहां जीवित रहकर जो आयु व्यतीत हुई है उससे यहां आधी आबाधा है, इस बातको छोड़कर दिन व वर्ष आदिको आबाधा करके परभविक आयुको बांधनेपर प्रकृति व विकृति स्वरूप गोपुच्छाएं सूक्ष्म होकर गलती हैं । इस प्रकार दीर्घ आबाधाका लाभ १ . नं. ( जीवट्ठाण - चूलिया ) ६ सूत्र २३, २७. २ अ-आपत्योः ' यंजमाणाउअस्स', काप्रतौ ' गुंजमाणा अस्स ' इति पाठः । ३ अ आ-काप्रतिषु ' अत्थं ' इति पाठः । ४ प्रतिषु ' आहे ' इति पाठः । ५ अ-आकाप्रति जीविदध्वं ', ताप्रतौ ' जीवदव्त्रं ' इति पाठः । छ. वे. ३१. • Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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