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________________ १, २, १, १०.1 यणमहाहियारे वेयणदविहाणे सामितं एसु उप्पाणमिदि उसं । ओवट्टणाघादे कदे को दोसो ति उत्ते- ण, घादेण बहररिदि पसाणं कम्मपदेसाणं बहुगाणं णिज्जरप्पसंगादो । जहा देवगइआदिकम्माणि पंधिदण पुणो तत्थ अणुप्पज्जिय अण्णत्थ वि उप्पज्जणं संभवदि तहा एत्थ णस्थि । जिस्से गईए आउअं बद्धं तत्थेव णिच्छएण उप्पजदि ति जाणावणडं थलचरादितिरिक्खपडिसेबर च 'जलचसुक्षणो' इदि उत्त। अंतोमुहुत्तेण सव्वलहुं सब्बाहि पज्जचीहि पज्जत्तयदों ॥४०॥ एग-दोसमएहि पज्जत्तीओं ण समाणेदि ति जाणावणटुं अंतोमुत्तमहणं करं। पज्जत्तिसमाणकालो जहण्णओ उक्कस्सओ वि अस्थि । तत्थ उक्कस्सकालपडिसेहई 'सब शंका- अपवर्तनाघात करनेमें क्या दोष है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, घात करनेसे थोड़ी स्थितिको प्राप्त हुए बहुत कर्मप्रदेशोंकी निर्जराका प्रसंग आता है। इसलिये यहां अपवर्तनाघातका निषेध किया है। जिस प्रकार देवगति आदि काँको बांधकर फिर वहां उत्पन्न न होकर अन्यत्र भी उत्पन्न होना सम्भव है इस प्रकार यहां नहीं है। किन्तु जिस गतिकी आयु बांधी गई है वहां ही निश्चयसे उत्पन्न होता है, ऐसा बतलानेके लिये, तथा थलचर भादि तिर्यचौका प्रतिषेध करने के लिये 'जलचरोंमें उत्पन्न हुमा' ऐसा कहा है। विशेषार्थ- आयुबन्ध और गति यन्धमें यही अन्तर है कि आयुबन्धके पश्चात् वह जीव नियमसे उसी गतिमें जन्म लेता है जिस गतिकी आयुका वह बन्ध करता है। किन्तु गतिबन्धके सम्बन्धमें ऐसा कोई नियम नहीं है क्योंकि एक ही पर्याय में कालभेदसे परिणामोंके अनुसार चारों गति कर्म और उनसे सम्बद्ध अन्य कर्मोका बन्ध होता है। प्रकृतमें दो बातोंको ध्यानमें रखकर 'जलचरोंमें उत्पन्न हुआ' यह वचन कहा है। प्रथम तो इस जीवने तिर्यंचायुका बन्ध किया था, इसलिये आयुबन्धके अचुसार वह 'जलचरोंमें उत्पन्न हुमा' यह कहा गया है। दूसरे, तिर्यचोंके अनेक भेद हैं । उनमेंसे प्रकृतमें जलचर तिर्यंचों में उत्पन्न कराना ही इष्ट है, यह समझ कर अभ्य तिर्यंचों में नहीं उत्पन्न हुआ, किन्तु जलचर तिर्यचोंमें उत्पन्न हुआ; यह ज्ञापन करने के लिये 'जलचरोंमें उत्पन्न हुआ' यह वचन कहा है। अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा अति शीघ्र सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्तक हुआ ॥ ४० ॥ एक-दो समयों द्वारा पर्याप्तियोंको पूर्ण नहीं करता है, यह बतलाने के लिये अन्तर्मुहर्सका प्रहण किया है। पर्याप्तियोंको पूर्ण करनेका काल जघन्य भी है और उत्कष्ट भी है। उसमें उत्कृष्ट कालका प्रतिषेध करनेके लिये 'सर्वलघु' पदका ..................................... १ अन्त महत सर्वलघु सर्वपर्याप्तिभिः पर्याप्तो जातः, अन्तर्महूर्तेन वियन्तः। मो. बी. (..)५८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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