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________________ ९२ - छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ४,२८. वि खंडाणि जवमज्झचदुब्भागविक्खंभाणि गुणहाणिदीहाणि घेतूण दक्खिणदिसाए पडिवाडीए' तिसु खंडेसु ढोइदे चत्तारिगुणहाणिआयामं पय दणिसेगविक्खंभखेत जेण होदि तेण चत्तारिगुणहाणिट्ठाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जदि त्ति उत्तं । पंचगुणहाणिमेत्तभागहारे उप्पाइज्जमाणे अड्डाइज्जखंडाणि जवमझं कादूण तत्थेगखंडे अवणिद सेसमिच्छिदखेत्तं होदि । अवणिदेगखंडम्मि अड्डाइज्जदिमभागविक्खंभ-दोगुणहाणिआयदखेतं घेत्तूण विक्खंभं विक्खंभेण आइय पढमखंडे ढाइदे पंचगुणहाणीओ आयामो होदि । सेसखंड मज्झम्मि फाडिय विक्खंभं विक्खंभम्मि ढोइय कृविदे पंचभागविक्खभ दोगुणहाणिआयदं खेत्तं होदि । एदमुच्चाइदूण पंचमभाग पंचमभागम्मि आइय पासे ढोइदे एत्थ वि पंचगुणहाणीओ आयामो होदि । तेणेत्थ पंचगुणहाणीयो भागहारो । एवमण्णत्थ वि सिस्समइविप्फारणहें भागहारपरूवणा कायव्वा । एत्थ उवउज्जती गाहा - इच्छहिदायामेण य रूजुदेणवहरेज्ज विक्खंभ । लद्धं दीहत्तजुदं इच्छिदहारो हवइ एवं ॥ ११ ॥ गुणहानि प्रमाण लम्बे इन तीनों ही खण्डोंको ग्रहण कर दक्षिण दिशामें परिपाटीसे पूर्वोक्त तीन खण्डोंमें मिलानेपर यतः चार गुणहानि प्रमाण लम्बा व प्रकृत निषक प्रमाण चौड़ा क्षेत्र होता है, अतः 'चार गुणहानिस्थानान्तरकालसे विवक्षित योगस्थानका द्रव्य भपहत होता है, ऐसा कहा है। . पांच गुणहानि मात्र भागहारके उत्पन्न कराते समय यवमध्यके अढ़ाई खण्ड करके उनसे एक खण्डको अलग कर देनेपर शेष इच्छित क्षेत्र होता है । अलग किये हुए एक खण्डमेंसे अढ़ाईवें भाग विस्तृत और दो गुणहानि आयत क्षेत्रको ग्रहण कर विस्तारको विस्तारके साथ मिलाकर प्रथम खण्डमें मिला देनेपर पांच गुणहानियां आयाम होता है। शेष खण्डको मध्यमें फाड़कर विस्तारको विस्तारमें मिलाकर स्थापित करनेपर पांचवां भाग विस्तृत और दो गुणहानि आयत क्षेत्र होता है। फिर इसे उठा कर पांचवें भागको पांचवें भागके पास लाकर पार्श्व भागमें मिलानेपर यहां भी पांच गुणहानियां आयाम होता है। इस कारण यहां पांच गुणहानियां भागहार है। इसी प्रकार अन्यत्र भी शिष्योंकी बुद्धिको विकसित करने के लिये भागहारकी प्ररूपणा करना चाहिये। यहां उपयुक्त गाथा रूपाधिक इच्छित आयामसे विस्तारको अपहृत करना चाहिये । ऐसा करनेसे जो लब्ध हो उसमें दीर्घताको मिलानेपर इच्छित भागहार होता है ॥ ११ ॥ ............................... १ प्रतिषु ' परिवाडीओ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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