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________________ Hum | ८ | १६ | ३११।९।६ | दो १ फद्दयसलागसंकलणाए रूवूण १, २, ४, १८६. ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया [४६७ गुणिदफद्दयवग्गणसलागवग्गगुणवग्गणविसेसमेत्तजण्णवग्गपमाणत्तादो । पुणों' अवरो वि एत्तिओ होदि |८|. । |२| संकलणगुणिदवग्गणविसेसमेत्तजहण्णवग्गपमाणत्तादो । एदस्स अणंतरमणिदरासिस्स मेलावणटुं पुबिल्लरासिअंतिमगुणगारम्मि एगरूवस्स संखेज्जदिभागो पक्खिविदव्यो। एगेगुत्तरकमेण विदअविभागपडिच्छेदा वि एगजहण्णवग्गस्स असंखेज्जदिभागमेता। ते वि जाणिदूगाणिय अभावदव्वम्मि अवणिय पुणो तं अभावदव्वं एदम्मि पढमगुणहाणिवम्मि |८| |१६|४|९|९| सोहिज्जमाणे वग्गणविसेसस्स गुणगारसरूवेण द्विददोगुण- | २ हाणीयो विसिलेसिय तत्थतणदोरूवाणि अंते- ठवेदव्वाणि |८| 0 |2|४/९/९।९।२।। पुणो एदम्मि सरिसच्छेदं कादूग अवणिदे अवसस | | १६ | |||| दि २१६/912/९/९/२/४ || एदं ताव पुत्र हुवेदव्यं । संपहि बिदियगुणहाणिफड़याणमाणयणक्कमो वुच्चदे। तं जहा-- पढमगुणहाणिपढमफद्दयद्धं ठविय बिदियगुणहाणिपढमादिफद्दयाणमुप्पायणटुं रूवाहिय-दुरूवाहियादीहि वर्गसे वर्गणाविशेषको गुणित करनेपर जो राशि प्राप्त हो उतने मात्र जधन्य वौँके बराबर हैं । दूसरा भी इतना है ( मूल में देखिये)। कारण कि स्पर्धकशलाकसंकलना रूप कम वर्गणाशलाकासंकलनासे गुणित वर्गणाविशेषका जितना प्रमाण हो उतने मात्र जघन्य वर्गोंके बराबर है । अनन्तर कही गई इस राशि के मिलानेके लिये पूर्व राशिके अन्तिम गुणकारमें एक रूपके संख्यातवें भागको मिलाना चाहिये । एक एक अधिक क्रमसे स्थित अविभागप्रतिच्छेद भी एक जघन्य वर्गके असंख्यातवें भाग मात्र होते हैं । उनको भी जान करके लाकर अभावद्रव्यमें से कम करके फिर उक्त अभावद्रव्यको इस प्रथम गुण हानिके द्रव्यमैसे (मूलमें देखिये ) कम करते समय वर्गणाधिशेषके गुणकार स्परूपसे स्थित दो गुणहानियोंको विश्लेषित करके वहांके दो रूपोंको अन्तमें स्थापित करना चाहिये (मूलमें देखिये )। फिर इसको समान खण्ड करके घटा देनेपर शेष इतना रहता है (मूलमें देखिये)। इसको पृथव करना चाहिये। अब द्वितीय गुणहानिके स्पर्धकोंके लाने का क्रम कहा जाता है। वह इस प्रकार है- प्रथम गुणहानि सम्बन्धी प्रथम स्पर्धकके अर्ध भागको स्थापित करके द्वितीय गुणहानिके प्रथम द्वितीयादि स्पर्धकोको उत्पन्न करानेके लिये एक रूप अधिक, , ताप्रती · कुछो' इति पाठः । २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-का-तापतिषु | 6 | इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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