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________________ ४६८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, १८६. . गुणहाणिफद्दयसलागाहि गुणिदे थोरुच्चएण बिदियगुणहाणिदव्वं होदि । पुणो एदासिं फद्दयाणं मेलावणविहाणं कस्सामो । तं जहा- फद्दयसलागासु अहियरूवे अवणिय पुध विदे एगादिएगुत्तरकमेण जहण्णफद्दयद्धस्स गुणगारों होदूण चेहँति । अवसेस पि गुणहाणिफद्दयसलागाहि गुणिदमेतं होदूण चेट्टदि । पुणो फद्दयसलागगुणिदजहण्णफद्दयद्धं चिदियगुणहाणिसव्वफद्दयसलागाहि गुणिदे आदिमपंतिदव्वं होदि। पुणो फद्दयसलागसंकलणगुणिदजहण्णफद्दयद्धे ठविदे बिदियपंती मिलिदूणागच्छदि । तेसिं दोण्णं पि दवाणं संदिट्ठीए अंकट्ठवणा एसा |८| 0 |२|१६/४/९/९/८० | २ |१६|४९) ९ ।। एत्थतणरूवाहियत्त-। २ मप्पहाणं कादण दो वि दव्वाणि सरिसच्छेदं कादूग मेलाविदे थोरुच्चएण बिदियगुणहाणिदव्वं मिलिदं होदि । तं च एवं | ८ | 0 | ६ ४ /९/९|३| एत्थ अहियाविभागपडिच्छेदाणमाणयणकमो बुच्चदे । तं जहा-पढमगुणहाणिवग्गणविसेसद्धं चदुसु हाणेसु चत्तारिपंतीओ पढम-बिदियाओ रूवूणेगगुणहाणिफद्दय दो रूप अधिक इत्यादि गुणहानिस्पर्धकशलाकाओंसे गुणित करने पर संक्षेपसे द्वितीय गुणहानिका द्रव्य होता है । अब इन स्पर्धकोंके मिलानेके विधानको कहते हैं । वह इस प्रकार है- स्पर्घकशलाकाओ से अधिक रूपोंको कम करके पृथक् स्थापित करनेपर एकको आदि लेकर एक अधिक क्रमसे जघन्य स्पर्धकके अर्ध भागके गुणकार होकर स्थित होते हैं । शेष भी गुणहानिकी स्पर्धकशलाकाओंसे गुणित करनेपर जितना प्रमाण प्राप्त हो उतना मात्र होकर स्थित होता है । फिर स्पर्धशलाकाओंसे गुणित जघन्य स्पर्धकके अर्ध भागको द्वितीय गुणहानिकी समस्त स्पर्धकशलाकाओंसे गुणित करनेपर प्रथम पंक्तिका द्रव्य होता है । पुनः स्पर्धकशलाकाओंकी संकलनासे जघन्य स्पर्धकके अर्ध भागको स्थापित करनेपर द्वितीय पंक्तिका द्रव्य मिल कर आता है। उन दोनों ही द्रव्योंकी अंकस्थापना संहाष्टमें यह है (मूलमें देखिये)। यहांकी रूपाधिकताको गौण करके दोनों ही द्रव्योंको समान खण्ड करके मिलानेपर संक्षेपसे द्वितीय गुणहानिका सम्मिलित द्रव्य होता है । वह यह है (मूलमें देखिये)। यहां अधिक अविभागप्रतिच्छेदोंके लानेका क्रम कहते हैं । वह इस प्रकार हैप्रथम गुणहानि सम्बन्धी वर्गणाविशेषके अर्ध भागकी चार स्थानों में चार रचित पंक्तियों से प्रथम व द्वितीय पंक्ति एक कम एक गुणहानिकी स्पर्धकशलाओंके बराबर आयत १ प्रतिषु 'गुणगारो' इति पाठः । २ ताप्रतौ ' मिलिदूण गच्छदि ' इति पाठः । ३ मप्रतिपाठोऽयम् । अप्रतो . १६/४९९३, आ-का-ताप्रतिषु . ४९९/इति पाठः। १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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