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________________ ४०० ] छक्खंडागमे वेयणाखंडं को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । बीइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ जोगो' असंखेज्जगुणो ॥ को गुणगारो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एत्थ बीइंदियअपज्जत्ता लद्धि - णिव्वत्तिअपज्जत्तएण दुविहाँ । तत्थ कस्स उक्कस्सजोगो घेपदे ? णिव्यत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सएयंताणुवड्ढिजोगो घेत्तव्वो । कुदो ? बीइंदियलद्धि अपज्जतउक्कस्सपरिणामजोगादो वि बीइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सएगताणुवढिजोगस्स जहण्णुक्कसवीणाबलेर्णं असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो । उवरिमेसु विणिव्यत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सएयंताणुवडजोगो चैव घेत्तव्वो । [ ४, २, ४, १५८. तीइंदियअपज्जत्तयस्स उक्कस्सजोगो असंखेज्जगुणो ॥ १५९ ॥ गुणगारो पलिदोवस्त असंखेज्जदिभागो । चदुरिदियअपज्जत्तयस्स उक्करसजोगो असंखेज्जगुणो ॥ १६० ॥ गुणगारो पलिदोवस्त असंखेज्जदिभागो । कारणं सुगमं । गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग 1 उससे द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकका उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है ॥ १५८ ॥ गुणकार क्या है ? गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । शंका- यहां द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक लब्ध्यपर्याप्तक और निरृत्यपर्याप्तक के भेद से दो प्रकार हैं । उनमें से किसके उत्कृष्ट योगको ग्रहण किया जाता है ? समाधान - निर्वृत्त्यपर्याप्त कके उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोगको ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके उत्कृष्ट परिणाम योग से भी द्वीन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्तका उत्कृष्ट ए कान्तानुवृद्धि योग जघन्योत्कृष्ट वीणा के बलसे असंख्यातगुणा पाया जाता है । आगे सूत्रोंमें भी जहां अपर्याप्त पद आया है वहां निर्वृत्यपर्याप्त कके उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोगको ही ग्रहण करना चाहिये । उससे त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकका उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है ॥ १५९ ॥ गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । उससे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकका उत्कृष्ट योग असंख्यातगुणा है || १६० ॥ गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है । इसका करण सुगम है । १ ताप्रतौ ' उक्कं सजोगो ' इति पाठः । २ अ-आपत्योः ' -अपज्जत्तयस्सओ लद्धि - ' का - ताप्रत्योः ' -अपज्जत्तयस्स उक्कत्सओ लद्धि-' इति पाठः । ३ प्रतिषु ' दुविहो ' इति पाठः । ४ काप्रतौ ' घेतो' इति पाठः । ५ अ आ-काप्रतिषु ' उक्कस्स अणताणुवा-' इति पाठः । ६ अ-आ-काप्रति विद्याबलेण ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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