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________________ २७० छक्खडागमै वैयणाखंड [ ४, २, ४, ५०. पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागेण अणियमिदि णिसण्णहाणुववत्तीदो। सुहमणिगोदेसु अच्छंतस्स आवासयपदुप्पायणटुं उत्तरसुत्ताणि भणदि तत्थ य संसरमाणस्स बहवा अपज्जत्तभवा थोवा पज्जतभवा ॥५०॥ एसो खविदकम्मंसिओ अपज्जत्तएसु खविद-गुणिद घोलमाणेहिंतो बहुवारमुप्पज्जदि, पज्जत्तएसु थोक्वारमुप्पज्जदि । कुदो ? पज्जत्तजोगादो असंखज्जगुणहीणेण अपज्जतजोगेण थोवाणं कम्मपदेसाणं संचयदसणादो । खविदकम्मंसियपज्जत्तमवेहितो तस्सेव अपज्जत्तभवा बहुगा त्ति किण्ण उच्चदे ? ण, विगलिंदियपज्जत्तहिदीए संखज्जवाससहस्सतण्णहाणुववत्तीदो। तं जहा ---- बीइंदियअपज्जत्तएसु जदि जीवो णिरंतरं उप्पज्जदि तो उक्कस्सेण असीदिवारमुप्पज्जदि । तीइंदियअपज्जत्तएसु सहिवार, चदुरिंदियअपज्जत्तएसु चालीसवारं' पंचिदियअपज्जत्तएसु चउवीसवार उप्पज्जदि ! ८० ६०/४० । २४ ।। समाधान-क्योंकि, इसके विना ‘पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन' यह निर्देश घटित नहीं होता । अत एव इसीसे वह जाना जाता है। सूक्ष्म निगोदजीवों में रहनेवाले उक्त जीवके आवासों के प्ररूपणार्थ उत्तर सूत्रों को कहते हैं __ वहां सूक्ष्म निगोदजीवोंमें परिभ्रमण करनेवाले उस जीवके अपर्याप्त भव बहुत होते हैं और पर्याप्त भव थोड़े होते हैं ॥ ५० ॥ यह क्षपितकर्माशिक जीव अपर्याप्तकों में क्षपित गुणित घोलमान कौशिक जीवोंकी अपेक्षा बहुत वार उत्पन्न होता है, और पर्याप्तकोंमें थोड़े वार उत्पन्न होता है; क्योंकि, पर्याप्त योगकी अपेक्षा असंख्यातगुणे हीन अपर्याप्त योग द्वारा स्तोक कर्मप्रदेशोंका संचय देखा जाता है। __ शंका-क्षपितकोशिकके पर्याप्त भवोंकी अपेक्षा उसीके अपर्याप्त भव बहुत हैं, ऐसा क्यों नहीं कहते ? . समाधान- नहीं, क्योंकि विकलेन्द्रिय पर्याप्तकोंकी स्थिति संख्यात हजार वर्ष प्रमाण अन्यथा बन नहीं सकती, इसलिये क्षपितकौशिकके पर्याप्त भवोंकी अपेक्षा उसीके अपर्याप्त भव बहुत हैं, ऐसा नहीं कहा। आगे इसी बात को स्पष्ट करके बतलाते हैं- यदि जीव द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकों में निरन्तर उत्पन्न होता है तो उत्कृष्ट रूपले अस्सी (८०) वार उत्पन्न होता है। त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकों में साठ (६०) वार, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें चालीस (४०) वार और पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें चौबीस ११.सं. पु.४ पृ. ३९९. २ म. सं. पु. ४ पु. ४०१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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