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________________ ५, २, ४, ५०.] वेयणमहाहियारे वेयणदम्वविहाणे सामित्तं [२७१ पज्जत्ताणमाउअहिदी पुण जहाकमेण बारस वासाणि, एगूणवण्णरादिदियाणि, छम्मासा, तेत्तीससागरोवमाणि । तत्थ जदि बीइंदियपज्जत्ताणमसीदि उप्पज्जणवारा होति तो पीइदियभवहिदी दसगुणछण्णउदिवासमेत्ता चेन होदि । ९६० १, तीइंदियाणमट्ठाणउदिमासा ! २८ ।, चउरिंदियाणं वीसवासाणि |२०|| ण च पवं, संखेज्जाणि वाससहस्साणि त्ति कालाणिओगद्दारे एदेसिं भवट्टिदिपम णपरूवणादो। तदो णध्वदे जधा अपज्जत्तएसु उम्पज्जणवारेहितो विगलिंदियपज्जत्तएसु उप्पज्जणवारा बहुगा त्ति, अण्णहा संखज्जवाससहस्समेत्तभवहिदीए अणुप्पत्तीदो। जधा विगलिदिएसु उप्पज्जणवारा बहुवा तथा सुहुमेइंदियजीवेसु वि सगअपज्जत्तएसु उप्पज्जणवारेहिंतो पज्जत्तएसु उप्पज्जणवारा बहुवा चेव, जीवत्तं पडि विसेसाभावादो तिरिक्खत्तं पडि विसेसाभावादो वा । तम्हा सगपज्जत्तभवेहिंतो सगअपज्जत्तभवा बहुगा ति एमो अत्थो ण वत्तव्यो । एवं भवावासो सुहुमेइंदिरासु पलविदो। (२४) वार उत्पन्न होता है । किन्तु उक्त पर्याप्तकोंकी आयुस्थिति यथाक्रमसे बारह वर्ष, उनचास रात्रिदिवस, छह मास और तेतीस सागरोपम प्रमाण है। उसमें यदि द्वीन्द्रिय पर्याप्तकोंके उत्पन्न होनेके वार अस्सी हो तो द्वीन्द्रियोंकी भवस्थिति दसगुणे च्यान अर्थात् नौ सौ साठ ( वर्ष १२४ ८० = ५६०) वर्ष प्रमाण ही होती है। त्रीन्द्रियोंकी भवस्थिति अट्टानबै (दिन ४९४ ६० = ९८) मास होती है और चतुरिन्द्रियोंकी वीस वर्ष (मास ६x४० = २० वर्ष) होती है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, कालानुयोगद्वार में उक्त जीवोंकी उत्कृष्ट भवस्थिति संख्यात हजार वर्ष प्रमाण कही है। इससे जाना जाता है कि अपर्याप्तों में उत्पन्न होने की वारशलाकाओंसे विकलेन्द्रिय पर्याप्तकों में उत्पन्न होनेकी वारशलाकायें बहुत हैं, अन्यथा उनकी संख्यात हजार वर्ष प्रमाण भवस्थिति नहीं बन सकती। और जिस प्रकार विकलेन्द्रियों में उत्पन्न होने की वारशलाकायें बहुत है उसी प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंमें भी अपने अपर्याप्तकामें उत्पन्न होनेकी चारशलाकाओंसे पर्याप्तकों में उत्पन्न होनेकी वारशलाकायें बहुत ही हैं, क्योंकि, विकलत्रयोंसे एकेन्द्रियों में जीवत्वकी अपेक्षा अथवा तिर्यक्त्वकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है; अर्थात् सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव जीवत्वकी अपेक्षा और तिर्यत्त्वकी अपेक्षा उक्त द्वन्द्रियादिकोंके समान हैं। इस कारण अपने पर्याप्त भोंसे अपने अपर्याप्त भव बहुत हैं, ऐसा भर्थ नहीं कहना चाहिये। इस प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें भवाबासकी प्ररूपणा की। १ कालाणु. १३०.२ प्रतिषु 'उप्पज्जमाण' इति पाठः । ३ अ-काप्रमोः 'उपजमाण' इति पाहः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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