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________________ ४४८ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ४, १८१. एत्तियमत्थि । तेण किंचूणच दुब्भागेणूणएगरूवे दिवङगुणहाणीए पक्खित्ते बिदियणिसेगभागहारो होदि । तदियवग्गणपमाणेण सव्ववग्गणजीवपदेसा केवचिरेण कालेन अवहिरिज्जंति ? सादिरेयदिव डुगुणहाणिट्ठाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जति । तं जहा -- पुव्विल्लखेत्तम्हि णिसेयविसेसविक्खंभ-दिवड्ढ गुणहाणिआयद दो फालीसु अवणिदासु अवणिदसेसं तदियणिसेगविक्खंभ-दिवड्डगुणहाणिआयदं होदूण चेट्ठदि । पुणो अवणिददोफालीसु तप्पमाणेण कदासुं सादिरेय एगरूवं पक्खेवो होदि । एवं जाणिय वत्तव्वं । एवं यव्वं जाव चरिमगुणहाणिचरिमवगणेत्ति । एवं भागहारपरूवणा समत्ता । भागाभागो वुच्चदे – पढमाए वग्गणाए जीवपदेसा सव्ववग्गणजीवपदे साणं केवडिओ भागो ? असंखेज्जदिभागो । बिदियाए वग्गणाए जीवपदेसा सव्ववग्गणजीवपदेसाणं केवडिओ भागो ? असंखेज्जदिभागो । एवं दव्वं जाव चरिमवग्गणेत्ति । एवं भागाभागपरूवणा समत्ता । अप्पाबहुगं उच्चदे - सव्वत्थोवा चरिमाए वग्गणाए जीवपदेसा । पढमाए वग्ग शलाका पायी जाती है । परन्तु इतना है नहीं, इसलिये कुछ कम चतुर्थ भागसे हीन एक अंकको डेढ़ गुणहानिमें मिलानेपर द्वितीय निषेकका भागहार होता है । तृतीय वर्गणाके प्रमाणसे सब वर्गणाओं के जीवप्रदेश कितने कालसे अपहृत होते हैं । उक्त प्रमाणसे वे साधिक द्वयर्धगुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होते हैं । यथा- पूर्व क्षेत्रमेंसे निषेकविशेष प्रमाण वितृत और डेढ़ गुणहानि आयत दो फालियोंको अलग कर देने पर शेष क्षेत्र तृतीय निषेक प्रमाण विस्तृत और डेढ़ गुणहानि आयत होकर स्थित रहता है । फिर घटाई हुई दो फालियोंको उसके प्रमाणसे करनेपर साधिक एक रूप प्रक्षेप होता है। इस प्रकार जान करके कहना चाहिये। इस प्रकार चरम गुणहानिकी चरम वर्गणा तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार भागद्दारप्ररूपणा समाप्त हुई । भागाभाग कहा जाता है :- प्रथम वर्गणाके जीवप्रदेश सब वर्गणाओं सम्बन्धी जीवप्रदेशोंके कितनेवें भाग प्रमाण हैं ? वे सब वर्गणाओं सम्बन्धी जीवप्रदेशोंके असंख्यातवें भागमात्र हैं । द्वितीय वर्गणा के जीवप्रदेश सब वर्गणाओं सम्बन्धी जीवप्रदेशों के कितने भाग प्रमाण हैं ? उक्त प्रदेश उनके असंख्यातवें भाग मात्र हैं। इस प्रकार चरम वर्गणा तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार भागाभागप्ररूपणा समाप्त हुई । अल्पबहुत्व कहा जाता है- चरम वर्गणा के जीवप्रदेश सबसे स्तोक हैं। उनसे १ अ आ-काप्रतिषु ' कलासु इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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