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________________ १, २, ४, १८६. ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया [ ४६३ ठाणपरूवणदाए असंखज्जाणि फद्दयाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि, तमेगं जहण्णयं जोगट्ठाणं भवदि' ॥ १८६ ॥ 1 सव्वेसिं जीवाणं जोगो किमेयवियप्पो चेव आहो अणेयवियप्पो त्ति पुच्छिदे एयवियोण होदि, अणेयवियप्पो त्ति जाणावणङ्कं ठाणपरूवणा आगदा । तत्थ' असं - खेज्जाणि फद्दयाणि घेत्तूण जहण्णजोगट्ठाणं होदित्ति वयणेण संखेज्जाणंत फद्दयाणं डिसेहो को । सेडीए असंखेज्जदिभागवयणेण पलिदोवम- सागरोवमादिफद्दयाणं पडिसेहो कदो | संपहि जहण्णद्वाणस्स वग्गणाणमविभागपडिच्छेद परूवणाए परूवणा पमाणमप्पाबहुगमिदि तिण्णि अणियोगद्दाराणि भवंति । तं जहा - पढमाए वग्गणाए अस्थि अविभागपडिच्छेदा । बिदियाए वग्गणाए अस्थि अविभागपडिच्छेद । । एवं यव्वं जाव चरिमवग्गणेत्ति । परूवणा गदा । पढमाए वग्गणाए अविभागपडिच्छेदा केत्तिया ? असंखेज्जलोगमेत्ता । बिदियवग्गणाए वि असंखेज्जलेोगमेत्ता । एवं णेदव्वं जाव चरिमवग्गणेत्ति । संपहि एत्थ पढम स्थानप्ररूपणा के अनुसार श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र जो असंख्यात स्पर्धक हैं उनका एक जघन्य योगस्थान होता है ॥ १८६॥ सब जीवोंका योग क्या एक भेद रूप ही है या अनेक भेदरूप है, ऐसा पूछने पर उत्तर में कहते हैं कि वह एक भेद रूप नहीं है, किन्तु अनेक भेद रूप है; इस बात के ज्ञापनार्थ स्थानप्ररूपणा का अवतार हुआ है । वहां असंख्यात स्पर्धकोंको ग्रहण करके एक जघन्य योगस्थान होता है, इस कथन से संख्यात व अनन्त स्पर्ध कोका प्रतिषेध किया गया है । 'श्रेणिके असंख्यातवें भाग' इस वचनसे पल्योपम व सागरोपम आदि प्रमाण स्पर्धकों का प्रतिषेध किया गया है । अब जघन्य स्थान सम्बन्धी वर्गणाओंके अविभागप्रतिच्छेदों की प्ररूपणा में प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व, ये तीन अनुयोगद्वार हैं । वे इस प्रकार हैं- प्रथम वर्गणा में अविभागप्रतिच्छेद हैं । द्वितीय वर्गणा में अविभागप्रतिच्छेद हैं । इस प्रकार अन्तिम वर्गणा तक ले जाना चाहिये । प्ररूपणा समाप्त हुई । प्रथम वर्गणा में कितने अविभागप्रतिच्छेद हैं ? असंख्यात लोक मात्र हैं । द्वितीय वर्गणा में भी वे असंख्यात लोक मात्र हैं । इस प्रकार अन्तिम वर्षणा तक ले जाना चाहिये। अब यहां प्रथम स्पर्धकके प्रमाणानुगम को करेंगे । वह इस प्रकार १ पलासं खेज्जदिमा गुणहाणिसला हवंति इगिठाणे । गुणहाणिफयाओ असंखभागं तु सेढीये ॥ गो. क. २२४. सेटिअसंखि अमेत्तारं फड्डगाई जहन्नयं द्वाणं | फड्डगपरिवुड्ढअओ अंगुलभागो असंखतमो ॥ क. प्र. १, ९. २ अप्रतौ ' तत्थ ' इत्येतत्पदं 'फद्दयाणि ' इत्यतः पश्चादुपलभ्यते । ३ ताप्रती ' बिदियाए वग्गणाए अस्थि अविभागपडि छेदा ' इत्येतद् वाक्यं स्खलितं जातम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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