SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८८ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड हाणीणं पढम-चिदियणिसेगाणं कमेण भागहारसंदिट्ठी | ७११ ७११ ७११ / ७११ ३२ १६ १४ ७११ १४२२ 1 ४ ७ 1 अधवा जवमज्झभागहारो संपुण्णतिण्णिगुणहाणिमेत्तो । सव्वदव्वं छत्तीसाहियपण्णारससदमेत्तं त्ति मणेण संकप्पिय अवहारकालपरूवणा कीरदे । तं जहा - जवमज्झट्ठिमअण्णोष्ण भत्थरासिणा तिसु गुणहाणीसु गुणिदासु' जहण्णजे गट्ठाणजीवभागहारो होदि । तेण सव्वदव्वे भागे हिदे जहण्णजोगट्ठाणजीवा आगच्छति । एवं पुव्वविधाणेण णेदव्वं जाव जवमज्झेति । पुणो तिण्णि ु णहाणीयो विरलेदूण सव्वदव्वेसु समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि जवमज्झमाणं पावेदि । पुणो एदस्स हेट्ठा दोगुणहाणीयो विरलिय जवमज्झं समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि पक्खेवपमाणं होदि । तम्मि उवरिमविरलणजवमज्झे सु. पादेक्कमवणिदे सेसा तिणिगुणहाणिमेत्तविदियणिसेगा चेति । तिण्णिगुणहाणिमेत्तपक्खेवेसु रुवूण दोगुणहात्तिपक्खेवेसु समुदिदेसु एगो पयदणिसेगो होदि एगा च अवहारसलागा लब्भदि । ७११ ७ आगेकी गुणहानियोंके प्रथम व द्वितीय निषेकोंके भागहारोंकी संदृष्टि - द्वि. गुण. प्र. नि. ू; द्वि. नि. ३ । तु. गु. प्र. नि. द्वि.नि. ' । च. गु. प्र. नि. ७१ १; द्वि. नि. ७११ । पं. गु १। प्र. नि. ७ ७ ११; = Jain Education International [ ४, २, ४, २८. दु १४२२ है । ७११ ७११ ८ अथवा यवमध्यका भागहार पूरा तीन गुणहानि प्रमाण है । सब द्रव्य पन्द्रह सौ छत्तीस है, ऐसी मनमें कल्पना करके अवहारकालकी प्ररूपणा करते हैं । यथा— यवमध्यकी अधस्तन अन्योन्याभ्यस्त राशिसे तीन गुणहानियोंको अर्थात् तीन गुणहानियों के कालको गुणित करने पर जघन्य योगस्थानवर्ती जीवोंका भागहार [ ( ४×३ ) × ८=९६ ] होता है । उसका सब द्रव्यमें भाग देने पर जघन्य योगस्थानके जीवोंका प्रमाण आता है [ १५३६ : ९६ १६ ] | इस प्रकार पूर्व विधान के अनुसार यवमध्य के प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये । १ प्रतिषु ' गुणिदेसु ' इति पाठः । 67 पुनः तीन गुणहानियोंका विरलन कर सब द्रव्यको समखण्ड करके देने पर विरलनके एक अंकके प्रति यवमध्यका प्रमाण प्राप्त होता है । फिर इसके नीचे दो गुणहानियोंका विरलन कर यवमध्यको समखण्ड करके देनेपर विरलन के प्रत्येक एकके प्रति प्रक्षेपका प्रमाण प्राप्त होता है । उसको उपरिम विरलनके प्रत्येक यवमध्योंमेंसे कम करनेपर शेष तीन गुणहानि मात्र द्वितीय निषेक रहते हैं। तीन गुणहानि मात्र प्रक्षेपों में से एक कम दो गुणहानि मात्र प्रक्षेपोंके मिलानेपर एक प्रकृत निषेक होता है और एक अव For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy