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________________ ४५८] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [१, २, ४, १८५. अट्ठ, तं दोहि रूवेहि गुणिदे बिदियफद्दयस्स आदिवग्गणा होदि |१६|| 'चरिमसुद्धा' पढमफद्दयस्स चरिमवग्गणं | ११ | एत्थ सोहिदे जं सेसं तेण सेसेण 'चरिमहीणा' चरिमवग्गणा बिदियफद्दयस्स पढमवग्गणादो हीणा होदि । एवं होदि त्ति कटु एदम्हि सेसे एगणे कदे तमागासं होदि, तस्स फद्दयस्स आगासमंतरं तमागासं, फद्दयंतरं होदि ति वुत्तं होदि | ४ ।। संपहि पढमफद्दयआदिवग्गणाए इच्छसलागाहि तीहि गुणिदाए तदियफद्दयस्स आदिवग्गणा होदि | २४ । पुणो एत्थ चरिमसुद्धा त्ति वुत्ते बिदियफद्दयस्स चरिमवग्गणा | १९ | सोहेयव्वा । सुद्धसेसं ! ५ । एदेण सेसेण चरिमवग्गणा हीणा कटु तत्थ एगूणे कदे तमागासं तं फद्दयंतरं होदि | ४) । एवमुवीरं पि जाणिदूण वत्तव्वं । (जत्थिच्छसि सेसाणं आदीदो आदिवग्गणं णादु । जत्तो तत्थ सहेढें पढमादि अणंतरं जाणे ॥ २१ ॥) अणंतरहेट्ठिमफद्दयआदिवग्गणादो अणंतरं उवरिमफद्दयस्स आदिवग्गणपरूवणट्ठमिमा स्पर्धककी आदिम वर्गणाका प्रमाण आठ है, उसको अभीष्ट स्पर्धककी संख्या रूप दो (२) अंकोंसे गुणित करनेपर द्वितीय स्पर्धककी आदिम वर्गणा (१६) होती है। 'चरिमसुद्धा' अर्थात् इसमेंसे प्रथम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणा (११) को कम करने पर जो (१६-११= ५) शेष रहे उतनी प्रथम स्पर्धककी चरम वर्गणा द्वितीय स्पर्धककी प्रथम वर्गणासे हीन होती है। इस प्रकार है, ऐसा समझकर इस शेषमेंसे एक कम करनेपर वह आकाश होता है। 'तस्स आगासं तमागासं' इस विग्रहके अनुसार तस्स अर्थात् विवक्षित स्पर्धकका आकाश अर्थात् अन्तर (४) होता है, यह उसका अभिप्राय है। अब प्रथम स्पर्धककी आदिम वर्गणाको इच्छित तृतीय स्पर्धककी तीन शलाकाओंसे गुणा करनेपर तृतीय स्पर्धककी आदिम वर्गणा (२४) होती है। फिर इसमेंसे 'चरिमसुद्धा' पदके अनुसार द्वितीय स्पर्धककी चरम वर्गणा (१९) को कम करना चाहिये। इस प्रकार घटानेसे जो शेष (५) रहता है उतनी इस शेषसे चंकि चरम वगेणा हीन है, अतः उसमसे एक कम करने पर वह आकाश अर्थात स्पर्धकका अन्तर (४) होता है। इस प्रकार आगे भी जानकर कहना चाहिये। जहां जहां जिस स्पर्धककी प्रथम वर्गणासे शेष स्पर्धकोंकी आदि वर्गणा जानना अभीष्ट हो वहां वहां पिछले स्पर्धककी वर्गणाको प्रथम वर्गणा सहित करनेपर अनन्तर स्पधेककी प्रथम वगेणा होती है॥ २१॥ अनन्तर पूर्व स्पर्धककी प्रथम वर्गणाले अनन्तर उपरिम स्पर्धककी प्रथम ........................... , प्रतिषु ' साहेयव्वा' इति पाठः। २ प्रतिषु 'सहेतुं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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