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________________ २.] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, २, ४, २. पुषभूदमथि, ओज-जुम्मपरूवणाविणाभाविपदमीमांसाए तस्स पवेसादो। ण संखाणिओगद्दारो वि अस्थि, उवसंहारपरूवणाविणाभाविसामित्तम्मि तस्स पवेसादों । ण गुणगाराणिओगदारं पि अस्थि, तस्स गुणगाराविणाभाविअप्पाबहुगम्मि पवेसादो। ण ठाणाणियोगद्दारं पि अत्थि, तस्स हाणपरूवणाविणाभाविअजहण्ण-अणुक्कस्सदव्यसामित्तम्मि पवेसादो। ण जीवसमुदाहारो वि . अत्थि, तस्स वि जीवाविणाभाविचउव्विहदव्वसामित्तम्मि पवेसादो। तम्हा पदमीमांसा- . सामित्तमप्पाबहुअमिदि तिण्णि चेव आणियोगद्दाराणि भवंति । (पदमीमांसाए णाणावरणीयवेदणा दव्वदो किमुक्कस्सा किमणुक्कस्सा किं जहण्णा किमजहण्णा ? ॥ २॥ एदं पुच्छासुत्तं देसामासिय, तेण अण्णाओ णव पुच्छाओ कायव्वाओ; अण्णहा पुच्छामुत्तस्स असंपुण्णत्तप्पस्संगादो । ण च भूदबलिभडारओ महाकम्मपयडिपाहुडपारओ असंपुण्णमुत्तकारओ, कारणाभावादो। तम्हा णाणावरणीयवेयणा किमुक्कस्सा किमणुक्कस्सा कि अधिनाभाविनी पदमीमांसामें उसका अन्तर्भाव हो जाता है। संख्या अनुयोगद्वार भी पृथक् नहीं है, क्योंकि, उपसंहार प्ररूपणाके अविनाभावी स्वामित्वमें उसका अन्तर्भाव हो जाता है। गुणकार अनुयोगद्वार भी भिन्न नहीं है, क्योंकि, उसका गुणकारके अविनाभावी अल्पबहुत्वमें अन्तर्भाव हो जाता है । स्थान अनुयोगद्वार भी भिन्न नहीं है, क्योंकि, उसका स्थानप्ररूपणाके अविनाभावी अजघन्य अनुत्कृष्ट द्रव्यका कथन करनेवाले स्वामित्वअनुयोगद्वारमें अन्तर्भाव हो जाता है। जीवसमुदाहार भी भिन्न नहीं है, क्योंकि, उसका भी जीवके अविनाभावी चार प्रकारके द्रव्यका कथन करनेवाले स्वामित्व अनुयोगद्वारमें अन्तर्भाव हो जाता है । इस कारण पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व, ये तीन ही अनुयोगद्वार हैं; यह सिद्ध होता है। पदमीमांसाका प्रकरण है। ज्ञानावरणीयवेदना द्रव्यसे क्या उत्कृष्ट है, क्या अनुत्कृष्ट है, क्या जघन्य है और क्या अजघन्य है १ ॥ २॥ यह प्रच्छासूत्र देशामर्शक है, अतः यहां अन्य नौ प्रश्न और करने चाहिये। क्योंकि, इनके बिना पृच्छासूत्रकी अपूर्णताका प्रसंग आता है। यदि कहा जाय कि इस तरह तो महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके पारगामीभूतबलि भट्टारक असम्पूर्ण सूत्रके कर्ता प्राप्त होते सो बात नहीं है क्योंकि, उसका कोई कारण नहीं है । इसलिये शानावरणीयवेदना क्या उत्कृष्ट है, क्या अनुत्कृष्ट है, क्या जघन्य है, क्या अजघन्य है, क्या सादि है, क्या अनादि ................... . १ सप्रतौ ' पदेसादो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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