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________________ ४, २, ४, २८.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं एवं गंतूण बिदियदुगुणवड्डिपढमणिसेयपमाणेण सव्वदवे अवहिरिज्जमाणे जहण्णजोगट्ठाणजीवभागहारस्स दुभागेण अवहिरिज्जदि । कुदो ? जहण्णजोगट्ठाणजीवेहिंतो एत्थतणजीवाणं' दुगुणतुवलंभादो । एदस्स संदिट्ठी । १६ । । संपहि तदणतरजोगट्ठाणजीवपमाणेण अवहिरिज्जमाणे असंखेज्जगुणहाणिट्ठाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जदि । णवरि तदणतरवदिक्कंतअवहारकालादो संपहिअवहारकालो विसेसहीणो । को विसेसो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागे।। तस्स संदिट्ठी ।.।। तत्थतणतदियणिसेयभागहारसंदिट्ठी ।। चउत्थणिसेगभागहारसंदिट्ठी । ११ ।। तदियगुणहाणिपढमसमयणिसेगभागहारो पढमगुणहाणिपढमणिसेगभागहारस्स चउब्भागो। कुदो ? तत्थतणलद्धादो एदस्स चउगुणत्तुवलंभादो । एवमसंखेज्जगुणहाणीओ भागहारं होदूण गच्छमाणीओ कम्हि उद्देसे जहण्णपरित्तासंखेज्जमेत्तीओ हाँति त्ति वुत्ते वुच्चदेजवमझादो हेट्ठिमकिंचूणतिगुणण्णोण्णब्भत्थरासिस्स जेत्तियाणि अद्धछेदणयाणि जपणपरित्तासखेज्जछेदणएहि ऊणाणि तेत्तियमेत्तासु गुणहाणीसु चडिदासु तदित्थणिसेगस्स भागहारो इस प्रकार जाकर द्वितीय दुगुणी वृद्धि के प्रथम निषेकके प्रमाणसे सब द्रव्यके अपहृत करने पर वह जघन्य योगस्थानवी जीवोंके भागहारके द्वितीय भागसे अपहृत होता है, क्योंकि, जघन्य योगस्थानवी जीवोंकी अपेक्षा इस स्थानके जीव दगुणे पाये जाते हैं । इसकी संदृष्टि-४११ । अब उसके अनन्तर योगस्थानवी जीवोंके प्रमाणसे सब द्रव्यके अपहृत करनेपर असंख्यात गुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होता है। विशेष इतना है कि इससे अनन्तर पूर्वके अवहारकालसे इस समयका अवहारकाल विशेष हीन है। विशेषका प्रमाण क्या है ? पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। उसकी संदृष्टि-७१ १ है। द्वितीय गुण हानिके तृतीय निषेकके भागहारकी संदृष्टि ७१.१ है । चतुर्थ निषेकके भागहारकी संदृष्टि ७.१.१ है। ततीय गुणहानिके प्रथम निषेकका भागहार प्रथम गुणहानि सम्बन्धी प्रथम निषेकके भागहारके चतुर्थ भाग प्रमाण है, क्योंकि, वहांके लब्धसे यहांका लब्ध (तृतीय गुणहानिका प्र. निषेक ) चौगुणा पाया जाता है। इस प्रकार असंख्यात गुणहानियां भागहार होकर जाती हुई किस स्थानमें जघन्य परीतासंख्यात मात्र होती हैं, ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं- यवमध्यसे अधस्तन कुछ कम तिगुणी अन्योन्याभ्यस्त राशिके जितने अर्धच्छेद जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंसे कम हों उतनी मात्र गुणहानियोंके चढ़ने १ प्रतिषु । एत्थ तेणेव जीवाणं ' इति पाठः। २ अप्रतौ ' को विसेसो विसेसहीणो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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