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१, २, १, ३२.] वेयणमहाहियारे बेयणदव्वविहाणे सामित्तं स्थत्तादो ? ण एस दोसो, संकिलेसस्सेव उक्कस्सजोगस्स कम्मट्ठिदिअभंतरे पडिसेहो णत्थि त्ति परूवणफलत्तादो। हेट्ठा सव्वत्थ समयाविरोहण उक्कस्सजोगो चेव, अण्णहा जोगावासस्स विहलत्तप्पसंगादो ।
चरिमसमयतब्भवत्थो जादो । तस्स चरिमसमयतब्भवत्थस्स णाणावरणीयवेयणा दव्वदो उक्कस्सा ॥ ३२ ॥
किमट्ठमेत्येव उक्कस्ससामित्तं दिज्जदे ? ण, वत्तिहिदिअणुसारिसत्तिहिदीए अधियाए अभावादो कम्मट्टिदीए पढमसमयम्मि बद्धकम्मखंधाण उवरिमसमए अवठ्ठाणाभावादो । उवार पि जाणावरणस्स बंधो अत्थि त्ति तत्थुक्कस्ससामित्तं ण दादु जुत्तं, जे तेण विणा आगच्छमाणउववादजोगदव्वादो गुणिदकम्मंसियउदयगयगोवुच्छाए बहुत्तुवलंभादो । आउअबंधामिमुहचरिमसमए उक्कस्रासामित्तं किण्ण दिज्जदे ? ण एस दोसो, आउअबंधकाले वि तक्का.
सूत्रके अर्थका कथन हो जाता है ?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, संक्लेशके समान उत्कृष्ट योगका कर्मस्थितिके भीतर प्रतिषेध नहीं है, यह बतलाना इस सूत्रका प्रयोजन है।
नीचे सर्वत्र यथासमय उत्कृष्ट योग ही होता है, क्योंकि, ऐसा माने विना योगावाससूत्र के निष्फल होने का प्रसंग आता है।
चरम समयमें तद्भवस्थ हुआ। उस चरम समयमें तद्भवस्थ हुए जीवके ज्ञानावरणकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है ।। ३२॥
__शंका - यहीं नारकभवके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट स्वामित्व किसलिये दिया जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, व्यक्तिस्थितिका अनुसरण करनेवाली ही शक्तिस्थिति होती है, उससे अधिक नहीं होती। इसका कारण यह है कि कर्मस्थितिके प्रथम समयमें बंधे हुए कर्मस्कन्धोंका कर्मस्थितिसे आगेके समयों में अवस्थान नहीं पाया जाता।
आगे भी ज्ञानावरण कर्मका बन्ध होता है इसलिये यदि कोई कहे कि वहां उत्कृष्ट स्वामित्व देना योग्य है सो यह बात भी नहीं है, क्योंकि, उसके विना उपपाद योगकै निमिससे प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे गुणितकर्माशिकके उदयको प्राप्त हुआ गोपुच्छाका द्रव्य बहुत पाया जाता है।
शंका-आयुबन्धके अमिमुख हुए जीवके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट स्वामित्व क्यों नहीं दिया जाता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, एक तो आयुबन्धके कालमें भी
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