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________________ ११० ] छक्खंड गमे यणाखंड [ ४, २, ४, १२. लियणाणावरणस्स बंधादो उदयगयगोवुच्छाए गुणिदकम्मंसियम्मि त्योवचुवलंभादो, आउवबंधकालम्मि जाददव्वसंचयादो' उवरिं बहुदव्वसंचयदंसणादो च । संपधि कम्मट्ठिदीए पढमसमयम्मि बद्धदव्वमुदयट्ठिदीए चेव उवलब्भदि, तस्स एगससयसंत्तिट्ठिदिविसेसादो । बिदियसमयसंचिददव्वमुदयादिदोसु ट्ठिदीसु चिट्ठदि, सत्तिट्ठिदिम्हि दोसमय से सत्तादो । एवं सव्वसमयपबद्धाणं अवट्ठाणपाओग्गट्ठिदीयो वत्तव्वाओ । ण च एस णियमा वि, पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तसमयपबद्धाणमक्कमेण गुणिद-घोलमाणादिसु णिज्जरे|वलंभादो । संपधि चरिमसमयगुणिदकम्मंसियम्मि कम्मट्ठिदिपढमसमयपबद्धो उक्कड्डणाए ज्झीणो । बिदियसमयपबद्धो वि ज्झीणो । एवं कम्म ट्ठिदिपढमसमय पहुडि जाव तिण्णिवाससहस्त्राणि उवरि अब्भुस्सरिदूण बद्धसमयपबद्धो उक्कड्डणादो ज्झीणो, अइच्छ|वण-णिक्खेवाणभावादो । समयाहियतिण्णिवाससहस्साणि चडिदूण बद्धसमयपबद्ध उक्कड्डुदो झीणो, तिणिवाससहस्समेत्तआबाधमइच्छिण उवरिमएमट्ठिदीए णिखेवलंभादो | तात्कालिक ज्ञानावरणके बन्धसे गुणितकर्माशिक के उदयको प्राप्त हुई गोपुच्छा स्तोक पाई जाती है और दूसरे आयुबन्धके कालमें संचित हुए द्रव्यसे आगे बहुत द्रव्यका संचय देखा जाता है, इसलिये आयुबन्धके अभिमुख हुए जीवके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट स्वामित्व नहीं दिया गया है । कर्मस्थितिके प्रथम समय में बंधा हुआ द्रव्य उदयस्थिति में ही पाया जाता है, क्योंकि, उसकी शक्तिस्थिति एक समय शेष रहती है । कर्मस्थितिके द्वितीय समय में संचित हुआ द्रव्य उदयादि दो स्थितियोंमें पाया जाता है, क्योंकि, उसकी शक्तिस्थिति दो समय शेष रहती है। इस प्रकार सब समयप्रबद्ध की अवस्थानके योग्य स्थितियां कहनी चाहिये । और यह नियम भी नहीं है, क्योंकि, पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण समयबद्धों की अक्रमसे गुणित और घोलमान आदि अवस्थाओंके होनेपर निर्जरा पाई जाती है । इसलिये यह निष्कर्ष निकला कि कर्मस्थितिका प्रथम संमयप्रबद्ध गुणितकर्माशिक जीवके अन्तिम समयमें उत्कर्षणके अयोग्य है । द्वितीय समयप्रबद्ध भी उत्कर्षणके अयोग्य है । इस प्रकार कर्मस्थिति के प्रथम समय से लेकर तीन हजार वर्ष तक आगे जाकर बंधा हुआ समयप्रबद्ध भी उत्कर्षणके अयोग्य है, क्योंकि, इनकी अतिस्थापना और निक्षेप नहीं पाया जाता। किन्तु एक समय अधिक तीन हजार वर्ष आगे जाकर बंधा हुआ समयप्रबद्ध उत्कर्षणके अयोग्य नहीं है, क्योंकि, तीन हजार वर्षे प्रमाण बाघाको अतिस्थापित करके आगेकी एक स्थिति में इसका निक्षेप पाया जाता है । दो १ प्रतिषु ' जादवयादो' इति पाठः । Jain Education International २ काप्रतौ ' एगसमयस्स सचिट्ठिदि ' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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