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________________ '४, २, ४, २१३. ] वेयणमद्दाहियारे वेयणदव्वविद्दाणे चूलिया सुगमं । एवमप्पा बहुगपरूवणा समत्ता । जाणि चैव जोगट्टाणाणि ताणि चेव पदेसंबंधट्टाणाणि । णवरि पदेसबंधट्टाणाणि पयडिविसेसेण विसेसाहियाणि ॥ २१३ ॥ दसहि अणियोगद्दारेहि' जोगट्ठाणपरूवणाए परुविदाए किमट्ठमिदं सुत्तमागदं ? बुच्चदे - एदाणि सवित्थरेण परूविदजोगट्ठाणाणि चेव पदेसबंधकारणाणि, ण अण्णाणि त्ति जाणाविय गुणिदकम्मंसिओ उक्कस्सजोगेसु चेव, खविदकम्मंसिओ जहण्णजोगेसु चेव हिंडाविदो | तस्स सफलत्तपरूवणदुवारेण बंधमस्सिदूण अजहण्ण- अणुक्कस्सदव्वाणं द्वाणपरूवणमागदा । एदस्स सुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे ताव जोगट्ठाणाणं सव्वेसि पि रचणा कायव्वा । एवं काढूण एदस्स अत्थो बुच्चदे । तं जहा1 जाणि चेव जोगट्ठाणाणि त्ति भणिदे जत्तियाणि जोगट्ठाणाणि त्ति वृत्तं होदि । ताणि चेव पदेसंबंधट्ठाणाणि त्ति भणिदे तत्तियाणि चेव पदे सबंध द्वाणाणि त्ति घेत्तव्वं । तं जहा- जहण्णजोगेण अट्ठ बंधंतस्स तमेगं णाणा यह सूत्र सुगम है । इस प्रकार अल्पबहुत्वप्ररूपणा समाप्त हुई । जो योगस्थान हैं वे ही प्रदेशबन्धस्थान हैं । विशेष इतना है कि प्रदेशबन्धस्थान प्रकृतिविशेषसे विशेष अधिक हैं ॥ २१३ ॥ - शंकादस अनुयोगद्वारोंसे योगस्थानप्ररूपणा के कर चुकनेपर फिर यह सूत्र किसलिये आया है ? - समाधान- इस शंकाका उत्तर कहते हैं । विस्तारसे कहे गये ये योगस्थान ही प्रदेशबन्ध के कारण हैं, अन्य नहीं हैं, ऐसा जतला कर गुणितकर्माशिकको उत्कृष्ट योगों में ही और क्षपितकर्माशिकको जघन्य योगों में ही जो घुमाया है उसकी सफलताकी प्ररूपणा द्वारा बन्धका आश्रय करके अजघन्य - अनुत्कृष्ट द्रव्योंके स्थानोंकी प्ररूपणा के लिये उक्त सूत्र प्राप्त हुआ है । ७. वे. ६४, [ ५०५ इस सूत्र का अर्थ कहते समय प्रथमतः सभी योगस्थानोंकी रचना करना चाहिये। ऐसा करके इस सूत्रका अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है- ' जाणि चेव जोगट्टाणाणि ' ऐसा कहनेपर 'जितने योगस्थान हैं ' ऐसा उसका अर्थ होता है । 'ताणि चेव पदेसबंधट्ठाणाणि ' ऐसा कहनेपर ' उतने ही प्रदेशबन्धस्थान हैं' यह अर्थ ग्रहण करना चाहिये । यथा - जघन्य योगसे आठ कर्मोंको बांधनेवालेके वह १ अ आ-काप्रतिषु ' अणियोगद्दाराहि ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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